कथादेश के मीडिया विशेषांक में प्रकाशित मेरा आलेख

हेयर स्टाइलिंग की दुनिया के बेताज बादशाह जावेद हबीब

        हाथ थे मिले कि जुल्फ चांद की संवार दूं- जावेद हबीब के हाथों में कुछ ऐसा ही जादू है। वो हेयर स्टाइलिंग की दुनिया के सबसे रौशन सितारे हैं। यूं तो देश भर में मॉडर्न सैलूनों की भरमार है, लेकिन ऐसे लोग न के बराबर हैं, जो बालों की बारीकियों को बखूबी समझते हों। जब भी हेयर स्टाइलिंग की बात आती है तो सबसे पहला भारतीय नाम जो जुबान पर आता है, वो है- जावेद हबीब। जाने-माने फैशन हेयर स्टाइलिस्ट जावेद हबीब को ये लोकप्रियता यूं हीं नहीं मिली है। यह उनकी लगन और मेहनत का नतीजा है । अपने प्रोफेशन के प्रति जबर्दस्त पैशन से लबरेज जावेद हबीब से मेरी मुलाकात पिछले हफ्ते हुई। उनकी तीन पीढ़ी इस व्यवसाय से जुड़ी रही है। जावेद के दादाजी नाजिर अहमद अपने समय के जाने-माने हेयर स्टाइलिस्ट थे। उनके ग्राहकों की सूची में भारत में ब्रिटिश शासन के अंतिम वायसराय लार्ड माउंटबेटन और आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे व्यक्तित्व शामिल थे । केश-सज्जा में अपना करियर बनानेवाले जावेद जेएनयू से फ्रेंच लिटरेचर में पोस्ट ग्रेजुएट हैं। उन्होंने लंदन के मौरिस स्कूल ऑफ हेयर ड्रेसिंग और लंदन स्कूल ऑफ फैशन से आर्ट एंड साइंस ऑफ हेयर स्टाइलिंग एंड ग्रूमिंग में दो साल का डिप्लोमा किया है। भारत में रंगे हुए बालों को लोकप्रिय बनाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। जावेद की शोहरत की वजह से ही सनसिल्क ने उन्हें अपना ब्रांड एंबेसडर चुना। जावेद का नाम लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी दर्ज है- उन्होंने एक दिन में नॉन स्टॉप 410 हेयर कट्स को अंजाम दिए थे। देश भर में जावेद हबीब के करीब 200 सैलून चल रहें हैं, जिसमे लगभग 700 हेयर स्टाइलिस्ट कार्य करते हैं। वो करीब 30 ट्राइकोलॉजी के स्कूल भी चला रहे हैं। भारत के अलावा मलेशिया और नेपाल में भी उनके इंस्टीट्यूट्स हैं। जावेद केश-सज्जा की कला को एक नई उंचाई तक ले जाने में काफी हद तक सफल रहे हैं।

                  जावेद ने मुलाकात के दौरान हेयर स्टाइलिंग से जुड़ी कई खास बाते बताईं। उनका मानना है कि भारतीय अपने बालों को लेकर अभी ज्यादा जागरूक नहीं हुए हैं। लेखकों, पत्रकारों और नेताओं में अपने बालों के प्रति लापरवाह रवैये पर वो कहते हैं- जहां तक हेयर स्टाइलिंग का मामला है, ये दुनिया के अन्य हिस्सों की तुलना में पूरी तरह आउटडेटेड हैं। सबसे जरूरी है सही हेयर कटिंग। जावेद कहते हैं बालों को सही तरीके से काटा जाना पहली आवश्यकता है। इसके साथ ही उसकी सही देख-रेख करनी चाहिए। जावेद का मानना है कि इस ग्लोबल दौर में बालों का मॉडर्न तरीके से देखभाल करना बेहद जरूरी है। उन्होंने मुझसे अपने बालों को खूबसूरत बनाने के लिए कुछ आसान मगर बेहद लाभकारी टिप्स बांटें, जिन्हें आजमाकर आप भी सुंदर बालों के स्वामी बन सकते हैं।

जावेद हबीब के 10 उपयोगी टिप्स-

  1. बालों की सही कटिंग कराएं।
  2. बाल हमेशा साफ रखें।
  3. अच्छे शैंपू से बालों को धोएं।
  4. हेयर डाई का सही तरीके से इस्तेमाल करें वर्ना नुकसान हो सकता है। किसी अच्छे प्रोफेशनल की मदद लें या सही तरीका समझकर खुद भी डाई कर सकते हैं।
  5. मेंहदी एक अच्छा कंडीशनर है- इसे उचित तरीके से प्रयोग में लाएं।
  6. छोटे बालों को मैनेज करना आसान होता है- इसलिए बहुत ज्यादा लंबे बाल की अपेक्षा छोटे बाल रखना ज्यादा फैशनेबल हैं।
  7. आपके चेहरे का आकार चाहे जैसा भी हो, आप अपना मनपसंद स्टाईल अपना सकते हैं। चेहरे के आकार से बालों की डिजाइन पर कोई फर्क नहीं पड़ता।
  8. हरी सब्जियां और फलों का सेवन ज्यादा करें।
  9. तनाव से दूर रहें, हंसे-मुस्कुराएं।
  10.  अधिक मात्रा में पानी पीएं।

                                 प्रस्तुति : आदर्श कुमार इंकलाब, दिव्या तोमर

शहीद भगत सिंह को नमन!

23 मार्च, 1931 को भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव शहीद हुए थे। आज के दिन उनकी शहादत 23 मार्च, 1931 को भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव शहीद हुए थे। आज के दिन उनकी शहादत को जरूर याद किया जाना चाहिए। पर फुर्सत किसे है? कहीं आईपीएल का जलवा है तो कहीं मायावती को पहनाए गए नोटों की माला पर चर्चा-परिचर्चा। हमारा मकसद शहीद भगत सिंह की उपेक्षा की शिकायत करना नहीं है। इंकलाब जिंदाबाद मंच उनकी शहादत को नमन करता है और अपने पाठकों से यह उम्मीद रखता है कि वो भगत सिंह को और ज्यादा जानने और समझने की कोशिश में जुटेंगे। उनके विचार दिलों में जिंदा रहेंगे तो हम सकारात्मक बदलाव की तरफ अग्रसर हो सकेंगे। – इंकलाब जिंदाबाद मंच को जरूर याद किया जाना चाहिए। पर फुर्सत किसे है? कहीं आईपीएल का जलवा है तो कहीं मायावती को पहनाए गए नोटों की माला पर चर्चा-परिचर्चा। हमारा मकसद शहीद भगत सिंह की उपेक्षा की शिकायत करना नहीं है। इंकलाब जिंदाबाद मंच उनकी शहादत को नमन करता है और अपने पाठकों से यह उम्मीद रखता है कि वो भगत सिंह को और ज्यादा जानने और समझने की कोशिश में जुटेंगे। उनके विचार दिलों में जिंदा रहेंगे तो हम सकारात्मक बदलाव की तरफ अग्रसर हो सकेंगे।

                                              – इंकलाब जिंदाबाद मंच

बिहार- लोकसभा चुनाव परिणाम 2009

कांग्रेस

सासाराम-मीरा कुमार

किशनगंज-मोहम्मद असरारूल हक़

जनता दल यूनाइटेड

खगड़िया-दिनेश चंद्र यादव

हाजीपुर- रामसुंदर दास

सीतामढ़ी-अर्जुन राय

झंझारपुर-मंगनी लाल मंडल

मधेपुरा-शरद यादव

मुज़फ़्फ़रपुर- कैप्टन जयनरायण प्रसाद निषाद

गोपालगंज-पूर्णमासी राम

उजियारपुर-अश्वमेध देवी

समस्तीपुर-रामेश्वर हज़ारी

बेगूसराय-मोनाज़िर हसन

मुंगेर-राजीव रंजन सिंह

नालंदा-कौशलेंद्र कुमार

पाटिलपुत्र-रंजन प्रसाद यादव

आरा-मीना सिंह

काराकट-महाबलि सिंह

जहानाबाद-जगदीश शर्मा

औरंगाबाद-सुशील कुमार सिंह

वाल्मिकीनगर-बैद्यानाथ प्रसाद महतो

सुपौल- विश्व मोहन कुमार

जमुई- भूदेव चौधरी

भाजपा-

मधुबनी-हुकुम देवनारायण यादव

अररिया-प्रदीप कुमार सिंह

पूर्णिया-उदय सिंह

गया-हरी मांझी

नवादा-भोला सिंह

पश्चिम चंपारण- डॉक्टर संजय जायसवाल

कटिहार-निखिल कुमार चौधरी

पूर्वी चंपारण-राधामोहन सिंह

दरभंगा-कीर्ति आज़ाद

भागलपुर- शाहनवाज़ हुसैन

पटना साहिब- शत्रुघ्न सिन्हा

शिवहर-रमा देवी

राष्ट्रीय जनता दल-

वैशाली-रघुवंश प्रसाद सिंह

महाराजगंज-उमाशंकर सिंह

सारण-लालू प्रसाद

बक्सर-जगदानंद सिंह

निर्दलीय-

बांका- दिग्विजय सिंह

सीवान-ओमप्रकाश यादव

जरूरत नए नेतृत्व की..!

नहीं मालूम किसे आप सत्ता सौंपेंगे? शायद ये बात आपको भी पता नहीं है कि आप किसके हाथ देश की बागडोर देना चाहते है। आपके पास भी विकल्पों की कमी नहीं है- कमी है तो महज सही फैसले लेने की क्षमता की। आप सवाल उठा सकते हैं कि हर किसी को अपना फैसला सही और दूसरों से बेहतर लगता है-फिर आप कैसे कह सकते हैं कि मेरा फैसला गलत है।

कह सकता हूं मैं। अपने क्षेत्र के लोगों की बात बताता हूं- अगर आप पूछिएगा कि आप किसे वोट देना चाहते हैं- तो भ्रम की स्थिति कायम है- ये भी अपनी ही जाति का है- वो भी अपनी ही जाति का- हम चाहते हैं मनमोहन फिर से प्रधानमंत्री बने- बेचारा अच्छा आदमी है- इसलिए मजबूरी है कि आरजेडी को देना पड़ेगा- हालांकि एमपी ने कोई काम किया ही नहीं है- इधर नीतिश भी अच्छा काम कर रहा है- लेकिन वो बीजेपी के साथ है-कांग्रेस को भी हमलोग वोट दे सकते हैं। जितनी मुंह-उतनी बातें।

जिस एमपी ने पांच साल में अपने क्षेत्र के लोगों का हाल-चाल पूछने की जरूरत तक न समझी, विकास की बात तो दूर- ऐसे एमपी को भी वोट देने के लिए सोच रहे हैं- किसलिए मजबूरी में- क्या होगा अगले पांच सालों में अगर वो जीत भी जाए तो- कोई काम नहीं होगा- जनता फिर अगले चुनाव का टकटकी लगाए इंतजार करेगी- संभव है फिर वही गलती दुहराए।

यहां सन्नी देओल की तारीख पर तारीख वाला डायलॉग याद आता है..चुनाव पर चुनाव…नतीजा ढ़ाक के तीन पात। मेरा कतई मतलब नहीं है कि आप जेडीयू और कांग्रेस को वोट दे..नो…नेभर..! जेडीयू का उम्मीदवार वो व्यक्ति है जिसे आप जानते तक नहीं फिर उस पर भरोसा कैसे कर सकते हैं- और कांग्रेस ने जिस प्रत्याशी को उम्मीदवार बनाया है- उसका कोई अता-पता नहीं चलता- खास समुदाय के वोट पर निगाह है। राम जाने क्या होगा।

मैं बस इतना चाहता हूं कि इन बड़ी पार्टियों द्वारा चुने गए इन अजीबो-गरीब नेताओं के बदले क्यों नहीं आप अपने बीच से किसी व्यक्ति को चुनें-उस पर भरोसा करें- ये फैसला इससे तो बेहतर ही है कि पुराने अकर्मण्य सांसदों को फिर से मजबूरी की माला पहनाएं। इस बार न सोच सके तो 2014 के लिए तैयार रहें। साथ मिलकर कुछ न कुछ करें।
आदर्श बाबू आप बुद्धिजीवी है, दिल्ली में रहते हैं- पत्रकार हैं- आप तो क्षेत्र के लिए समय देने से रहे- आप ही कुछ उपाय सुझाएं- आखिर आपका दायित्व बनता है- जिस मिट्टी से आप आए हैं- हमलोगों को आप पर भरोसा है कि आप कुछ न कुछ करें अपनी जन्मभूमि के लिए। नमस्कार..!

शेखर यादव, सीतामढ़ी।

गजनी: मर्दवादी पीठ और पाठ

ghajinistill01किसी देश का सिनेमा उस देश की सामाजिक-सांस्कृतिक बनावट की पहचान किए ब किना बॉक्स-ऑफिस पर अपनी सफलता दर्ज नहीं कर सकता। गजनी फिल्म ने पहले दो हफ्तों में 200 करोड़ रूपये का व्यापार कर बॉलीवुड में नया इतिहास रचा है।इसकी बॉक्स-ऑफिस की सफलता हमारे समाज के स्वप्न और उसकी कुंठाओं की पहचान में सहायक हो 

सकता है। फिल्म की सफलता का मूल्यांकन सिर्फ इसलिए नहीं किया जाना चाहिए कि उसका प्रोडक्शन खूबसूरत था वरन् इसलिए भी जरूरी हो  जाता है कि वह हमारी किन मनोदशाओं, अभिरुचियों, कुंठाओं,चाहतों,लालसाओं और लिप्साओं को पकड़ने में समर्थ रही है। एक सफल फिल्म वह भी हो सकती है जो हमारी पिछड़ी मानसिकता का प्रतिबिंबन करती हो और हमें प्रगतिशील बनाने के बजाय हमारे जड़ीभूत मूल्यों को संतुष्ट करती हो। कहना चाहिए कि गजनी फिल्म की  सफलता का आधार यही है। इस फिल्म ने हिंदुस्तानी समाज के पितृसत्तात्मक स्वरूप और भाववादी स्वप्न को करीने से अभिव्यक्त किया है। गजनी में मर्दवादी पाठ की निर्मिति के लिए तीन मूल आधार बनाए गए हैं।

1. देह और स्मृति     

2. बदला और

3. पूँजी तथा सत्ता 

आप याद करें कि मध्यकाल में जब राजनीति,धर्मनीति और भूमि पर वर्चस्व के लिए दैहिक बल सर्वाधिक उपयोगी था तब स्त्रियाँ सामाजिक परिदृश्य से गायब हो गयी थीं। देह तो उनके पास थी परंतु वह अनुपयोगी थी। आधुनिक युग में स्त्री की देह एक मूल्यवत्ता अर्जित करती है। वह आकर्षण और अकर्मण्यता के आयाम से बाहर आकर आर्थिक अस्मिता और श्रमजीविता की पहचान अर्जित कर रही है। परंतु हमारी फिल्मों में इस नए संदर्भ को उभारना फिल्म के फ्लाप होने का खतरा मोल लेना है। गजनी में भी स्त्री की देह रागभाव की रचना करती है और पुरुष की देह बदले,आधिपत्य और पूँजी के स्वामित्व को धारण किए हुए रहती है। स्त्री की देह केटेलिस्ट का कार्य करती है और पुरूष की देह की परिचालक भर बन कर रह जाती है।फिल्म की नायिका अपनी भोली अदाओं और रहनुमाई स्वाभाव से नायक(संजय सिंघानिया-आमिर खान) को आकर्षित करती है । उसको अपनी विज्ञापन एजेंसी में भी तभी महत्त्व मिलता है जब उसके संबंध एक पूँजी-पुरुष से जुड़ते हैं। इस जगह पर भी उसके अपने स्वतंत्र अस्तित्व का कोई अर्थ नहीं। परंतु वह अपने परोपकारी उद्यम को बचाने में खुद शहीद हो जाती है । अब इस शहादत का बदला नायक को लेना होता है और वह इसमें सफल भी होता है।

asinपुरुष वर्चस्व को बड़ी चतुराई से फिल्म में दैहिक स्तर पर स्थापित कर दिया गया है। सवाल उठता है कि दर्शकों ने इस फिल्म के इस दैहिक ट्रीटमेंट को कैसे समझा । स्वाभाविक है कि आज भी हमारे समाज में लड़ने-भिड़ने, कमाने,खर्चने और दोस्ती-दुश्मनी के सभी फैसले पुरुष ही लेता है इसलिए यह फार्मूला हमारे आम दर्शक को पसंद आना था और आया भी। फिल्म में एक शोधार्थी महिला(जिया खान)भी है पर उसका भी काम उत्प्रेरक मात्र का है । बदला लेने में वह नायक की सहायिका बनकर ही उभरती है अपने स्वाधीन व्यक्तित्व के रूप में नहीं।

गजनी में स्मृति के दो रूपों का इस्तेमाल हुआ है। मानव-स्मृति और यांत्रिक-स्मृति दोनों की समानांतर उपस्थिति से फिल्ममें बदले की भावना को बुना गया है। मानव-स्मृति का गुण है कि वह स्वाभाविक रूप से परिष्कृत होती चलती है और अवांछनीय कुंठाओं को कूड़ेदान में डालती चलती है। मनोविश्लेषक सिग्मंड फ्रायड ने मानव मन के अवचेतन भाग को स्मृतियों का कूड़ेदान ही कहा है। इसलिए मानव-स्मृति हार्ड-डिस्क की तरह न होकर एक जैविक प्रक्रिया के तहत काम करती है। फिल्म के शुरुआती भाग में संजय सिंघानिया मानव-समृति का उपयोग करता है जिसमें उसकी आंकाक्षाएँ,स्वप्न,प्रेम और ख्वाहिशें पलती-पनपती हैं।परवर्ती भाग, मानव-स्मृति को मशीनी-स्मृति में तब्दील करने

 का है। नायक की देह कंप्यूटर की हार्ड-डिस्क की तरह उपयोग की जाने लगती है। हर डेटा सुरक्षित रखने का उद्यम शुरू होता है। गजनी धर्मात्मा इस स्मृति को मिटा देना चाहता है। देह का मशीनी कनवर्जन और मशीन को नष्ट कर देने का प्रयत्न फिल्म के दोनों प्रमुख पुरुष पात्र ही करते हैं। डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ के पहलवानों का दृश्य याद कीजिए,मनुष्य नहीं मशीनों की टकराहट प्रतीत होती है वह कुश्ती। संजय सिंघानिया अपनी देह को इसी तरह ढालता है। भारत में अभी महिलाओं की छवि का ऐसा बिंब नहीं बन पाया है,इसलिए स्मृति के मशीनी रूप को महिला नहीं मर्द ही धारण कर सकता था। देह और यांत्रिक-स्मृति मिलकर बदले की भावना का सघनतम निर्माण करने में सक्षम हो जाती हैं जिसे मर्दवादी ढाँचे में ढाले बिना संभव न था।  

बदला गजनी फिल्म का केंद्र है। इसीलिए दर्शकों को इंटरवल के बाद फिल्म अपनी जद में लेती है।यह बदला भी लेने का काम संजय सिंघानिया ही करता है। बदला जिससे लिया जाता है वह भी गजनी धर्मात्मा पुरुष ही है। यानी फिल्म यह दिखाती है कि पुरुषों के खेल में औरतें या तो उपकरण हैं या फिर मर्दवादी क्रीड़ाभूमि के लिए मात्र खिलौना। हमारे समाज में भी स्त्री-पुरुष का यही संबंध कार्यरत रहता है। औरतों की भूमिका अधिकांशत: पुरुष-निर्मित क्रीड़ा भूमि में एक बॉल की तरह होती है जिसे मनचाहे स्थानों पर फेंका जा सकता है। पुरुष,खिलाड़ी की तरह इनका नियंता बन जाता है।  कला का तर्क जागरूक महिलाओं को भी इसकी भनक नहीं लगने देता और वे शायद ही फिल्म के इस अंतर्विरोध को पहचानने में समर्थ हो पाती हैं। गजनी फिल्म में इस सामाजिक सच्चाई को अंतर्विन्यस्त कर दिया गया है और वह दर्शकों को छूने लगती है। बदले की वजह(बॉल) वह बन सकती है, बदला लेने वाली (खिलाड़ी) नहीं।बॉक्स ऑफिस की सफलता की पढ़त बिल्कुल नए नजरिए से करने की जरूरत भी होनी चाहिए। 

          आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण भी हमारे समाज में स्त्री-पुरुष संबंधों की पहचान का एक महत्त्वपूर्ण कारक है। इस फिल्म में सभी प्रकार की पूँजी पर पुरुषों का ही नियंत्रण दिखाई देता है।पूँजी अर्जित करने और खोने का सारा खेल पुरुषों के बीच ही खेला जाता है। संजय सिंघानिया हो या गजनी धर्मात्मा, पूँजी और सत्ता पर वर्चस्व इन दोनों पुरुषों का ही है।सत्ता और पूँजी की लड़ाई में पुरुष ही शामिल हैं और वे पूरी पटकथा को नियंत्रित करते हैं। फिल्म की खूबी यह है कि संजय सिंघानिया अपनी संवेदनाओं के चलते अपनी पूँजी और व्यवसाय को गौण कर देता है और बदले की भावना को तरजीह देता है,जबकि गजनी धर्मात्मा इन्हें बचाए रखने के लिए संवेदनहीन हो जाता है। आर्थिक संसाधनों का महत्त्व और उनकी निस्सारता दोनों ही फिल्म के भीतर बुनी हुई हैं, पर इन दोनों स्थितियों को उभारने वाले पुरुष-पात्र ही हैं।

यह फिल्म अपनी अंतर्संरचना में हमारे समाज की पितृसत्ता की कई तहों को समाहित किए हुए है। रोजमर्रा की गतिविधियों में यह इतनी रच-पग जाती है कि बिल्कुल स्वाभाविक-सी लगने लगती है। इसी स्वाभाविकता को यह फिल्म पकड़ती है और बॉक्स-ऑफिस पर सफलता अर्जित करती है।कहना न होगा कि गजनी पितृसत्ता को ही पोषित करती है,अपनी सफलता के बावजूद। बल्कि यह कहना अधिक ठीक होगा कि इसका  मर्दवादी पाठ ही इसकी सफलता के केन्द्र में है। 

 

                            –  डॉ राम प्रकाश द्विवेद्वी, सिने समीक्षक

 

अभी तूने वह कविता कहाँ लिखी है, जानेमन..!

 

अभी तूने वह कविता कहाँ लिखी है, जानेमन

मैंने कहाँ पढ़ी है वह कविता

अभी तो तूने मेरी आँखें लिखीं हैं, होंठ लिखे हैं

कंधे लिखे हैं उठान लिए

और मेरी सुरीली आवाज लिखी है

 

पर मेरी रूह फ़ना करते

उस शोर की बाबत कहाँ लिखा कुछ तूने

जो मेरे जिरह-बख़्तर के बावजूद

मुझे अंधेरे बंद कमरे में

एक झूठी तस्सलीबख़्श नींद में ग़र्क रखता है

 

अभी तो बस सुरमयी आँखें लिखीं हैं तूने

उनमें थक्कों में जमते दिन-ब-दिन

जिबह किए जाते मेरे ख़ाबों का रक्त

कहाँ लिखा है तूने

 

 

अभी तो बस तारीफ़ की है

मेरे तुकों की लय पर प्रकट किया है विस्मय

पर वह क्षय कहाँ लिखा है

जो मेरी निग़ाहों से उठती स्वर-लहरियों को

बारहा जज़्ब किए जा रहा है

 

अभी तो बस कमनीयता लिखी है तूने मेरी

नाज़ुकी लिखी है लबों की

वह बाँकपन कहाँ लिखा है तूने

जिसने हज़ारों को पीछे छोड़ा है

और फिर भी जिसके नाख़ून और सींग

नहीं उगे हैं

 

अभी तो बस

रंगीन परदों, तकिए के गिलाफ़ और क्रोशिए की

कढ़ाई का ज़िक्र किया है तूने

मेरे जीवन की लड़ाई और चढ़ाई का ज़िक्र

तो बाक़ी है अभी…

अभी तूने वह कविता लिखनी है, जानेमन…

 

                                                             – अरुणा राय 

                                                       

ख्वाबों का सिगरेट, ख्यालों की व्हिस्की..!

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जिंदगी कभी दोराहे पर खड़ी होती है- कभी चौराहे पर। दिल-दिमाग अलग-अलग रास्तों पर किसी ट्रैफिक पुलिस की तरह नियमों का डंडा दिखाता है। पर मन है जो नहीं मानता बंदिशों को- हालांकि जानता है वो कि अगर हेलमेट न पहनूं तो खतरा मेरे ही ऊपर है- फिर भी। मसला लुत्फ का है- लुत्फ इन बातों में आता है या उन बातों में- ये आप नहीं- आपका दिल तय करता है- या कह सकते हैं आदत- आदत जो आपके अवचेतन मन में पैठ गई है। आप पीछा छुड़ाना चाहते हैं- लेकिन छूट नहीं पातीं- शायद इसलिए इसे आदत कहते हैं- तलब इसका दूसरा नाम है। तलब सिर्फ सुर्ती-सुपारी की नहीं होती- ख्वाबों का सिगरेट और ख्यालों की व्हिस्की भी कम खतरनाक नहीं है। मैं भी इसी का शिकार हूं- निजात पाने की जुगत में लगा हूं- जब कोई नुस्खे की पुड़िया हाथ लगेगी तो बताउंगा आपको भी।

        – आदर्श कुमार इंकलाब     

कभी मिलते हैं ऐसे भी हसीन चेहरे..!

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हर किसी की जिंदगी में ऐसे मौके कई बार आते हैं, जब लगता है कि जिंदगी बेहद खूबसूरत है- किसी हसीन वादियों की तरह। उन लम्हों में जीते हुए हम एक साथ कई जिंदगी जी रहे होते हैं- पुरानी यादों के पुल से गुजरते हुए भविष्य की पगडंडियों तक। वर्तमान से ज्यादा आनंद उस वक्त

भविष्य के गर्भ में छिपा होता है। स्वप्न और यथार्थ का फासला मिटने लगता है। दरअसल यही आनंद है। जब चेतन्य मन-मस्तिष्क हमारा साथ छोड़ दे और हम अकेले अपनी नादानियों के साथ चहलकदमी करें-हम एक बार फिर लौटें अपने बचपन में- फिर शरारत करने को मन मचल उठे- लुत्फ तब आता है। आप भी इंतजार कीजिए- ऐसे मौसम का- बहारें एक बार गुजर चुकी हों तो कोई बात नहीं- बहारे फिर आएंगी। आप फिर मुस्कुराएंगे- झूमेंगे- नाचेंगे- जश्न मनाएंगे- जिंदगी का जश्न।

              

                                          – आदर्श कुमार इंकलाब

उदास है मन आज!

आज न जाने क्यूं जी उदास है। उदासी की कोई खास वजह भी नहीं। आंखें नम हो रही है- दरअसल बुद्ध हो रहा हूं मैं। अपने-पराये सब अब एक-से लगने लगे हैं। लोग कहते हैं- जब मन में पीड़ा हो तो कुछ लिख देना चाहिए- मन हल्का हो जाता है। लेकिन मन में कुछ नहीं है- न सुख- न दुख। बस वक्त-वक्त की बात है- कभी खुशी-कभी गम। मुझे मालूम है जब आप इन शब्दों से गुजर रहे होंगे तो सोचेंगे जरूर कि मायूसी का बयान किसलिए ? हो सकता है एक पंक्ति पढ़कर किसी और अहसास के लिए निकल जाएं। पर क्या करूं ये इस पल का सच है- इस पल खुश नहीं हूं मैं- अभिनय आता है पर कर नहीं सकता- जिंदगी अभिनय नहीं है। हां, एक दुआ जरूर करता रहता हूं कि अपने-पराये सभी खुश रहें- ये जानते हुए भी कि हमारे दुआ कर देने के बाद भी जरूरी नहीं कि दुआ कुबूल हो। खैर, जब-तब मन की बात बांटने को जी चाहता है। विदा लेता हूं आपसे- खुद से- फिर किसी रोज मुलाकात होगी।

                 – आदर्श कुमार इंकलाब

कब तक यूं खामोश रहें और सहें हम..?

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भारतवर्ष के सभी नागरिकों को आदर्श कुमार इंकलाब का नमस्कार..!

 

हालात गंभीर हैं। चुनौतियां कठिन हैं। जुबानी दावे अपना अर्थ खो चुके हैं। महज बयान देने का कोई मतलब नहीं है। भारतवर्ष के माथे पर चिंता की लकीरें हैं। कदम उठाने की

बात की जा रही है। कदम उठेगा भी या नहीं- कहना मुश्किल है। हम सभी एक-दूसरे पर

आरोप मढ़ने में लगे हुए हैं। कोई नेता पर उंगली उठा रहा है- कोई जांच एजेंसियों पर।

क्या हुआ- क्यों हुआ- की बजाय अब हमें क्या करना चाहिए- जो करना चाहिए- उसे

किए जाने की जरूरत हैं। हम प्रेम की भाषा बोलनेवाले हैं। अब दूसरी भाषा का इस्तेमाल

करना होगा। अपना घर मजबूत करना होगा। धर्म-जाति-संप्रदाय-प्रदेश- सब कुछ भूलना होगा। समझना होगा कि भारतवर्ष के सभी नागरिक सिर्फ भारतवासी हैं- ना कोई हिंदू- ना कोई मुसलमान- ना कोई सिक्ख- ना कोई ईसाई। ना कोई उत्तर भारतीय- ना कोई

दक्षिण भारतीय। हमारे घर में अपनों के बीच जो खाई है-उसे हर हाल में पाटना होगा।

देशप्रेम का जज्बा हर नागरिक में भरना होगा। भारत के हर युवा-वृद्ध-महिला-बच्चे- सभी

के दिल-ओ-दिमाग में भारतवर्ष जिंदादिली के साथ जिंदा रहना चाहिए। जब हम अपने घर के सभी सदस्यों के साथ- बाहों में बांहें डाले खड़े होंगे- पड़ोसी खुद-ब-खुद सही रास्ते पर आ जाएगा। अगर फिर भी नहीं आएगा तो हिंदुस्तान को समझाना भी तो अच्छी तरह आता है। पहले भी दो बार समझा चुके हैं हम।

 

दूसरी बात देश को नेतृत्व प्रदान करनेवाले लोग कमजोर हो चुके हैं। इसलिए जरूरी है कि युवा आगे आएं। हम हमेशा से कहते आए हैं- आमिर ने भी कहा- देश में एक अच्छे नेतृत्व- युवा नेतृत्व की जरूरत है- आपको भी लगता होगा। आगे बढ़िए- अपनी नई पार्टी खड़ी करना चाहते हों- बेहिचक कीजिए- किसी पार्टी के साथ काम करना चाहते हों- वो भी कीजिए- पर जहां रहिए- जब जरूरत पड़े, ठोस कदम उठाने से पीछे मत हटिए।

कुछ कीजिए- अब देर ठीक नहीं। पूरे भारतवर्ष को इंतजार है। उम्मीद है कि जल्द ही हम अपने देश में अमन-चैन-खुशहाली और प्रेम का माहौल तैयार कर लेंगे। हमें धूल झाड़कर चुनौतियों के लिए तत्काल खड़े होने की जरूरत है। चलिए देखते हैं- आगे क्या होता है। इंकलाब जिंदाबाद का मंच देश के युवाओं के साथ संवाद स्थापित करने के लिए है। उम्मीद है हमारे बीच खूब प्यार बढ़ेगा- देशप्रेम की लहर और मजबूत होगी। हम गर्व से गाते रहेंगे हमेशा- सारे जहां से अच्छा…!

 

इंकलाब जिंदाबाद मंच।

डॉ. रामप्रकाश द्विवेद्वी की कविताएं

एक
तुम्हे देखते हुए
मैं देख पाया
तुम्हारी आँखों में
उमड़ता
नीला सागर अपार।
मैं
देख पाया
तुम्‍हारे होठों पर ठहरे
किसी ऋषि के
हवनकुंड से निकले
तपते लाल अंगार, पवित्र
मैंने देखा
तुम्हारे वक्ष में छिपी
गंगोत्री
प्रवाहित होने को आतुर
देखे मैंने
तुम्‍हारे माथे पर
बीचों बीच फैले
विराट बियाबान
अंधेरों और भय से भरे हुए।
मैं देख पाया
पूर्वजों को
और भावी पीढि़याँ
तुम्‍हारी मुस्‍कान में
पर
नहीं देख पाया कि तुम
कैसे देखती हो पुरुष को।
……………………………………………………..
दो

 

उस रोज
शाम के धुंघलके में
हवाएँ जब पागल हो उठी थीं
अवारा बादलों से लिपट
उतार लायीं थीं उन्‍हें
धरती की नंगी सतह पर।
तब
तुम बिजली-सी कौंध उठी थीं
मेरे खुले आकाश पर।
तुम्‍‍हारी आँखों में बैठा
शैतान झिंझोड़ गया था
मेरे देवता को।
परत दर परत खामोशी
जम गयी थी
मेरे भीतर
कहीं बहुत गहरे।
मेरे फरिश्तों के पंख
तुम्‍हारे जल्लादों की गिरफ्त में
आ गए थे।
फिर
उधर
धरती की देह पर बादल बरसे
इधर तुम
सराबोर सृष्टि
भर उठी अनूठी गंध से।

आंखों की चौखट में विश्वास की अल्पना…काशी..!

मैंने कल इक सपना देखा…देखा…देखा…सपना देखा!

कभी-कभी। कभी-कभी या यूं कहें कि अक्सर जिंदगी में ऐसे पल आते हैं जब आपको सकारात्मक बने रहने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती है। आप जिंदगी के ताने-बाने में यूं उलझते हैं कि जिंदगी ही खो जाती है। कुछ समझ नहीं आता कि आखिर करें क्या? व्यावसायिक काम-काज निपटाकर जब फुर्सत के दो पल नसीब होते हैं तो मन सुकून के लिए तड़प उठता है- लेकिन सुकून कहां मिलेगा- पता ही नहीं चलता। फिर हम भटकने लगते हैं- पहले मन भटकता है फिर हम। और भटकते-भटकते कभी नींद आ जाती है तो कभी नींद के इंतजार में ही रात को अलविदा कहना पड़ता है। और अगले रोज हम फिर व्यावसायिक सफर पर निकल पड़ते हैं।

हम लाख रोकें सवाल तो फूट ही पड़ता है कि मन आखिर इतने बेचैन क्यों हो? चाहते क्या हो आखिर?सपने तुमसे या तुम सपनों से कहीं भाग तो नहीं रहे? या फिर तुम्हारा आत्मविश्वास डगमगा रहा है कि तुम कभी उन सपनों के लायक ही नहीं थे। हम जानते हैं हमें जवाब नहीं मिलेगा- क्योंकि जवाब तो हम ही देंगे ना- जो हम देना नहीं चाहते। अजीब पहेली है। हम क्यों ऐसे सवाल उठाते हैं- जिसका जवाब हम खुद ही नहीं जानना चाहते हैं। या साफ कहें कि- डर लगता है। हां- डर तो लगता है- सवाल से भी और जवाब से भी। और इस मामले में विकल्पहीन नहीं है दुनिया- पर भरोसा करना मुश्किल हो जाता है।

क्या करेंगे आप?  चाय पीएंगे आप- एक कप- दो कप-तीन कप- जितना चाहे पीजिए- कोई फर्क नहीं पड़ेगा। सिगरेट पीएंगे- रिस्क लेंगे- सेहत से क्यों खिलवाड़ कर रहें हैं- हमें जवाब चाहिए- जवाब तो सिगरेट पीने से भी नहीं मिलेगा- अलबत्ता जिंदगी में बेवजह एक सवाल और जोड़ लेंगे। सिगरेट के कश में भी वो बात नहीं रही। सब फिजूल है। भ्रम है। धुएं की धरोहर है।

बीयर पीएंगे- पीकर देखते हैं- कुछ नहीं मिलेगा- बेचैनी और बढ़ जाएगी सुकून…आ जा रे- सुकून आपके पुकारे नहीं आएगा। शराब- गटकते हैं तो जिस्म जलता है- रूह भी- फिर क्यों पिए जा रहें है- खुद नहीं पी, दोस्तों ने पिला दी- थोड़ी पी- फिर सुकून तलाशिएगा- फिर सुकून की याद भी जाती रहेगी-अगली सुबह जब उठेंगे तो हेडेक रहेगा- फिर काली चाय-लाल चाय- अगला दिन फिर बर्बाद- अगले दिन सुकून की चाह और बढ़ जाएगी।

बैठ जाइए- बैठ नहीं सकते। सो जाइए- नींद नहीं आती।

क्यूं कर रहें है सुकून का इंतजार- सुकून अगर आ गई तो आप मर जाएंगे- आपका अस्तित्व चिल्लाकर फिर दम तोड़ देगा। मत कीजिए- इंतजार- न सुकून का न ही किसी ऐसी चीज का जो आपके वश में नहीं है। मुश्किल है..पनघट की डगर है..चलना पड़ेगा..नहीं तो पानी हलक तक कैसे उतरेगी। जिंदगी है आपकी या फिल्म…इसकी तो कहानी ही उलझी है…फिर कैमरा लिए कहां जा रहें है…क्या कैद करेंगे कुछ पता भी है…अरे मोबाइल तो लेते जाइए…कोई इंपॉर्टेंट कॉल आ गई तो…बैट्री तो चार्ज है ना…एटीएम से पैसा निकाल लिया है आपने…जाइए जो मन में आए शूट कीजिए- फिर एडिट टेबल पे ठीक कीजिएगा…क्या बनाइएगा तीसरी कसम….दुनिया बनानेवाले क्या तेरे मन में समाई….उसने दुनिया बनाई…आप फिल्म बनाइए…बॉक्स ऑफिस पर चलनी चाहिए- याद रखिए…मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता- कुछ लेना-देना नहीं है- आर्ट हो या कमर्शियल या क्या कहते हैं उसे…समानांतर सिनेमा।

खैर बनाइए चाहे जो भी पहले कैमरा लेकर निकलिए तो सही कि दिमाग से ही बैठे-बैठे पिक्चर शूट कीजिएगा। चलता हूं…कहां…पता नही…लेकिन पिक्चर बनानी है दोस्त…क्योंकि जिंदगी की पिक्चर अभी शूट नहीं हुई है…जिंदगी की पिक्चर तो अभी पूरी बाकी है।

                         

                                -आदर्श कुमार इंकलाब

( अपने सपने से ही साभार- आखिर ये जमा पूंजी मेरी नहीं मेरे सपनों की है)

 

चंद्रकांत देवताले की कविताएं

अकविता आंदोलन के प्रमुख कवियों में से एक चंद्रकांत देवताले की- माँ के लिए सम्भव नहीं होगी मुझसे कविता और माँ जब खाना परोसती थी-  दोनों कविताएं भाव और शिल्प दोनों स्तरों पर प्रभावित करती है। आप सबके लिए इन्हें प्रस्तुत करता हूं…

 

(1) माँ के लिए सम्भव नहीं होगी मुझसे कविता

अमर चिऊँटियों का एक दस्ता मेरे मस्तिष्क में रेंगता रहता है

माँ वहाँ हर रोज़ चुटकीदोचुटकी आटा डाल देती है

मैं जब भी सोचना शुरू करता हूँ

यह किस तरह होता होगा

घट्टी पीसने की आवाज़ मुझे घेरने लगती है

और मैं बैठेबैठे दूसरी दुनिया में ऊँघने लगता हूँ

जब कोई भी माँ छिलके उतार कर

चने, मूँगफली या मटर के दाने नन्हीं हथेलियों पर रख देती है

तब मेरे हाथ अपनी जगह पर थरथराने लगते हैं

माँ ने हर चीज़ के छिलके उतारे मेरे लिए

देह, आत्मा, आग और पानी तक के छिलके उतारे

और मुझे कभी भूखा नहीं सोने दिया

मैंने धरती पर कविता लिखी है

चन्द्रमा को गिटार में बदला है

समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे में खड़ा कर दिया

सूरज पर कभी भी कविता लिख दूँगा

माँ पर नहीं लिख सकता कविता !

(2) माँ जब खाना परोसती थी                           

वे दिन बहुत दूर हो गए हैं

जब माँ के बिना परसे पेट भरता ही नहीं था

वे दिन अथाह कुँए में छूट कर गिरी

पीतल की चमकदार बाल्टी की तरह

अभी भी दबे हैं शायद कहीं गहरे

फिर वो दिन आए जब माँ की मौजूदगी में

कौर निगलना तक दुश्वार होने लगा था

जबकि वह अपने सबसे छोटे और बेकार बेटे के लिए

घी की कटोरी लेना कभी नहीं भूलती थी

उसने कभी नहीं पूछा कि मैं दिनभर कहाँ भटकता रहता था

और अपने पानतम्बाकू के पैसे कहाँ से जुटाता था

अकसर परोसते वक्त वह अधिक सदय होकर

मुझसे बारबार पूछती होती

और थाली में झुकी गरदन के साथ

मैं रोटी के टुकड़े चबाने की अपनी ही आवाज़ सुनता रहता

वह मेरी भूख और प्यास को रत्तीरत्ती पहचानती थी

और मेरे अकसर अधपेट खाए उठने पर

बाद में जूठे बरतन अबेरते

चौके में अकेले बड़बड़ाती रहती थी

बरामदे में छिपकर मेरे कान उसके हर शब्द को लपक लेते थे

और आखिर में उसका भगवान के लिए बड़बड़ाना

सबसे खौफनाक सिद्ध होता और तब मैं दरवाज़ा खोल

देर रात के लिए सड़क के एकान्त और

अंधेरे को समर्पित हो जाता

अब ये दिन भी उसी कुँए में लोहे की वज़नी

बाल्टी की तरह पड़े होंगे

अपने बीवीबच्चों के साथ खाते हुए

अब खाने की वैसी राहत और बेचैनी

दोनों ही ग़ायब हो गई है

अब सब अपनीअपनी ज़िम्मेदारी से खाते हैं

और दूसरे के खाने के बारे में एकदम निश्चिन्त रहते हैं

फिर भी कभीकभार मेथी की भाजी या बेसन होने पर

मेरी भूख और प्यास को रत्तीरत्ती टोहती उसकी दृष्टि

और आवाज़ तैरने लगती है

और फिर मैं पानी की मदद से खाना गटक कर

कुछ देर के लिए उसी कुँए में डूबी उन्हीं बाल्टियों को

ढूँढता रहता हूँ।

 

 – (प्रस्तुति: वेद रत्न शुक्ल)

दुखिया दास कबीर है… !

देश में इस समय राजनीति का माहौल चकाचक है। नोट के बदले वोट कांडएक बार फिर से गर्म है। करार के लिए बेकरार पीएम सफल होते जान पड़ रहे हैं। आतंकवादी अपने तरीके से होली-दिवाली मना रहे हैं। पक्ष और प्रतिपक्ष मुखर हैं। चुनाव सन्निकट हैं। दुन्दुभी बज चुकी है। कुल मिलाकर चुनाव लायक माहौल है।
भारतीय लोकतन्त्र में वोट-नोट, सीडी-स्टिंग, कट्टा-कारतूस की मुकम्मल जगह बन चुकी है। अब यह राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति के औजार बन चुके हैं। वर्तमान में अमर सिंह इसके इंजीनियर जान पड़ते हैं। कोई दुविधा नहीं कि अमर सिंह जी कुशल कारीगर और कुशल अभियन्ता हैं। वोट और नोट के बीच वह सेतु का कार्य करते हैं। उनकी महिमा अपरम्पार है। वह खुद सेतु भी हैं और उसके अभियन्ता भी। समकालीन राजनेताओं ने उनका लोहा मान लिया है। उमा भारती सरीखी नेता के कर कमलमें स्टिंग की सीडी थमाकर उन्होंने वाकई कमाल कर दिया। इतने भर से ही वह चुप बैठने वाले नहीं हैं। हाल ही में उन्होने अपने कारीगरी का एक और नमूना पेश किया। कांड के मुख्य गवाह हस्मत अली को ही पुलिस के हवाले कर दिया। बहुत ही मनोरंजक ड्रामा था। मीडिया को फेवर में करने के लिए प्रणाम और स्तुति गान किया। अमर सिंह वास्तव में बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। कुशल अभियन्ता होने के साथ-साथ वह एक कुशल हास्य अभिनेता भी हैं। इस कैटेगरी में उनकी रैंकिंग नम्बर दो की है। पहले पायदान पर वरदान प्राप्त लालू है। हालांकि अमर सिंह उनको कड़ी टक्कर दे रहे हैं। इसी क्रम में उन्होंने शिवराज पाटिल की मिमिक्री कर डाली। इस मिमिक्री से पत्रकारों और आम जनता का मनोरंजन तो हुआ लेकिन खुद अमर सिंह सांसत में फंस गए। गृहमन्त्री और कांग्रेस कुपित हो गई। ड्रामे का अनापेक्षित अन्त हुआ। हस्मत को दिल्ली पुलिस ने छोड़ दिया। अब वह असलियत बयां कर रहा है। अमर सिंह पर संगीन आरोपों की बरसात कर रहा है। मीडिया अमर के चक्कर में नहीं फंसा। अमर की शिकायत का उल्टा असर हुआ। अब देखना है कि हस्मत की शिकायत को पुलिस कितनी संजीदगी से लेती है। वैसे उसके लिए कोर्ट का दरवाजा भी खुला है। ऐसी स्थिति में मेरी चिन्ता का आर-पार नहीं है। मैं ज्यादा चिन्तित मुलायम सिंह को लेकर हूं। धरतीपुत्र मुलायम सिंह को लेकर। लगता है पहलवान पर बुढ़ापा हावी हो रहा है। वह अमर सिंह की बैशाखी लेकर चलने को मजबूर हैं। मुलायम उसी पुराने तरीके से जिलाध्यक्षों और कार्यकर्ताओं की बैठक कर लाठी-डंडा, जेल-बेल की तैयारी कर रहे हैं। उधर अमर सिंह दिल्ली में माल काट रहे हैं और कैमरों के सामने चमका रहे हैं। अब तो अमर सिंह ने सार्वजनिक रूप से कहना शुरू कर दिया है कि मेरे आगमन से पहले सपा उमाकान्त यादव, रमाकान्त यादव सरीखे गुण्डों से पहचानी जाती थी। मुलायम मौन हैं। बागडोर अमर के हाथों में है। राजनीति के एक कद्दावर की टोपी उछल रही है। मुलायम के मुस्लिम तुष्टीकरण और यादववाद की आलोचना उचित ही है। लेकिन मुलायम उत्तर प्रदेश के सर्वाधिक जनाधार वाले नेता भी हैं। किसानों, छात्रों तथा गरीबों की मदद करने की उनकी अपनी विशिष्ट स्टाइल है। उनके राज की गुण्डागर्दी को याद करके रोम-रोम अवश्य सिहर उठता है लेकिन अमर सिंह जैसे योजनाकारों के रहते हुए शुभ की आशा भी नहीं की जा सकती।
जामिया का फैसला देश के शेष विश्वविद्यालयों के लिए नजीर बन सकता है। तमाम विश्वविद्यालयों के कुछ छात्र जरायम पेशा हैं। हत्या, अपहरण और लूटपाट के मामलों में छात्रों की गिरफ्तारी आम है। जामिया के फैसले से ऐसे छात्र राहत महसूस कर सकते हैं। सम्बन्धित विश्वविद्यालय या कॉलेज अब उन्हें कानूनी मदद दे सकते हैं। जामिया ने नजीर स्थापित की है। वह भी तब जब उसके दो छात्र आतंकवादी घटनाओं के सिलसिले में गिरफ्तार किये गये हैं। एक तरफ तो उसने इन दोनों छात्रों को निलम्बित भी कर दिया है, वहीं दूसरी तरफ इनकी बचाव में भी आ खड़ी हुई। जाहिर है कि निलम्बन दिखावटी है। जामिया का फैसला संकेत करता है कि उसे बटाला हाउस की मुठभेड़ पर यकीन नहीं है। अर्जुन सिंह ने भी जामिया के फैसले पर अपनी मुहर लगा दी है। स्पष्ट है कि सरकार को अपने किये पर पछतावा है। आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई पर अब वह पश्चाताप करना चाहती है। रामविलास और फातमी भी राजनैतिक स्यापा कर रहे हैं। बकौल फातमी कानूनी सहायता उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है।फातमी साहब ने सही फरमाया। कानूनी सहयोग सरकार का ही दायित्व है। न्यायालय के आदेश पर ऐसा करना सरकार की जिम्मेदारी है न कि जामिया की जिम्मेदारी। उसे आतंकी और तालबीन के बीच फर्क अवश्य मालूम होगा। कुछ चीजों को कानून के सत्यापन की आवश्यकता नहीं होती। समय आने पर चीजें खुद-बखुद स्पष्ट हो जायेंगी। लेकिन मैं ख्वामख्वाह चिन्तित हूं। कबीर भी चिन्तित थे सुखिया सब संसार है खाये अउ सोवे, दुखिया दास कबीर है जागे अउ रोवे। दरअसल मेरी चिन्ता इस समय मुलायम सिंह को लेकर है। भविष्य के बारे में पता नहीं।

                        – वेद रत्न शुक्ल

शहीद भगत सिंह को नमन!

तमाम भारतवासियों के लिए प्रेरणास्रोत शहीद भगत सिंह के 101-वें जन्मदिवस पर इंकलाब जिंदाबाद मंच उनके विचारों को हमेशा जिंदा रखने की शपथ लेता है।

तमाम देशवासियों और इंकलाबियों के दिलों में शहीदे-आजम हमेशा बसे रहेंगे धड़कन की तरह।

शहीद भगत सिंह….जिंदाबाद !

इंकलाब…जिंदाबाद !

 

इंकलाब जिंदाबाद मंच

 

आखिर कब तक..?

आंतकवाद की समस्या पर पिछले कुछ दिनों से चर्चाओं का बाज़ार गर्म है…हर कोई इसे कोस रहा है और इसके आगे नहीं झुकने की बात भी कर रहा है …ठीक है…मगर सवाल ये है कि नहीं झुक के हम और कितने मोहनचंद को पैदा करेगें …उनके पीछे हम कितने जवान विधवाओं की सूनी मांगों पर आंसू बहाएंगे…तो क्या हम घुटने टेक दें..सवाल ये भी है कि आखिर ये आतंकवादी चाहते क्या हैं..जहां तक मुझे याद है पिछले कुछ दिनों में हुए आंतकवादी घटनाओं के पीछे इन भारतीय आंतकवादियों के होने के पीछे कोई ठोस वजह नहीं थी…ये मुस्लिम समुदाय की नई पीढ़ी है ..जिसके परिवार इतने सक्षम हैं कि उन्हें दिल्ली में तालीम दें सकें….मतलब समस्या पेट और रोजगार का भी नहीं है….तो आखिर ये चाहते क्या हैं…क्या हिंदुओं को जेहाद से मुस्लिम बनाना चाहते हैं…..या धर्म के नाम पर एक और पाकिस्तान की नींव रखना चाहते हैं…….मेरी समझ में इनके पास कोई बेसिक ऐंजेंडा नहीं है…इनके पीछे इनकी असुरक्षा की भावना है…अगर आज तक मुसलमान भारत को अपना देश नहीं मान रहे तो इसमें उनकी मूर्खता के अलावा हमारी असफलता की भी कहानी छिपी हुई है …ये महज संयोग नहीं है कि जामियानगर में पुलिस फायरिंग के दौरान और बाद में वहां के मुस्लिम समुदाय से ये आवाज आ रही थी कि ये इनकाउंटर फर्जी है…पुलिस बदनाम कर रही है…किसी इंसपेक्टर को गोली नहीं लगी है….घर में घुस के गोली मारी है ..यहां से कोई नहीं भाग सकता…पुलिस मुर्दाबाद….रमजान के पाक महीने में ये ठीक नहीं है…और भी बहुत-सी बातें….मगर बहादुर इंस्पेक्टर एच सी शर्मा की मौत के बाद….इन बेकार की बातों पर ब्रेक लगा ….मतलब अगर शर्मा बच जाते तो वहां के मुसलमानों के लिए ये एनकांउटर फर्जी हो जाता….मतलब साफ है एनकाउंटर की सत्यता के लिए एच सी शर्मा जैसे बहादुर सिपाही को मरना होगा……अगर हम उस दिन के वाकये को याद करें तो एच सी शर्मा बिना बुलेटप्रुफ जैकेट के सेल्स मैन के रूप में दाखिल हुए ताकि रमजान के पाक महीने को अपवित्र किए बिना ही उन आतंकवादियों को गिरफ्तार कर लें मगर जब गोली चली-लाशें गिरीं तो एच सी शर्मा को उठा कर कुछ सिविल ड्रेस में पुलिसवाले ले गए उस दौरान सीढ़ी खाली हो गई और दो लोग भाग निकलने में सफल हो गए….आज आजमगढ़ के लोगों की बातें सुनिए …उसे गोली मार दो,अगर वो दोषी हों तो,जांच ठीक से करो….अब सवाल पेचींदा है…जांच वही ठीक होगा जिसमें ये लोग निर्दोष सिद्ध होंगे….और जब दोषी नहीं हैं तो गोली भी नहीं मारी जाएगी..और अगर दोषी सिद्ध हो भी गये तो जांच को ही गलत ठहरा दिया जाएगा….हमारे मुस्लिम भाई जब तक इस मानसिकता से नहीं निकलेगें तब तक मामला नहीं बनेगा…मुझे याद है जब भी भारत पाकिस्तान का मैच होता है तो पाकिस्तान द्वारा मारे गये हर चौके-छक्के या किसी अन्य सफलता पर शाहदरा, सीलमपुर, जामिया में पटाखे उड़ाए जाते हैं…आखिर क्यों…ये खेल भावना है तो भारत के चौके पर भी पटाखे चलने चाहिए ..अगर ये जाति प्रेम है तो भारत में भी मुस्लिम खिलाड़ी है…सच में ये देश द्रोह की छुपी भावना है, जो इन छोटी-मोटी बातों मे निकल आती हैं…(मैं ये नहीं कह सकता कि सभी मुस्लिम इस मानसिकता से ग्रसित हैं)यहां ये भी देखने की बात है कि आखिर जो मुस्लिम भाई इस मानसिकता से ग्रसित हैं, उसके पीछे क्या वजह है…..दरअसल कहीं न कहीं किसी न किसी बात पर उन्हें ये महसूस होता है कि उनके साथ बराबरी का व्यवहार नहीं होता……वो खुद को उपेक्षित महसूस करते हैं और सोने पर सुहागा ये कि नरेंद्र मोदी जैसे महान व्यक्ति इस भावना को भड़काने में मदद करते हैं….खैर ज़रूरत इस बात की है कि दोनों पक्ष अपनी पारंपरिक सीमाओं को तोड़ें  !

 – कुणाल कुमार

 

कितनी सहूलियत हो अगर आतंकवादी रोज विस्फोट करें!

देश की राजमंडली लकदक रहे तो कितना ठीक है। राजा साहिब बनाव-श्रृंगार नहीं करेंगे तो भला कौन करेगा, मेरा मंगरुआ। गृह मन्त्री शिवराज पाटिल छैला बनकर नहीं घूमेंगे तो कौन घूमेगा। वैसे भी मुझको उनमें फिल्मी खलनायक अजीत या प्राण का अक्स नजर आता है। आप को अगर ठीक से याद आता हो तो बताइयेगा कि शिवराज बाबू किस फिल्मी पर्सनैलिटी की तरह लगते हैं। बहरहाल, शिवराज बाबू ने लोगों के सुविधानुसार ही वस्त्र धारण किया। विस्फोट से पहले पार्टी मीटिंग में गए तो बिल्कुल सौम्य ग्रे कलर का सूट पहनकर। वहां सोनिया-वोनिया जी कितने सारे लोग रहते हैं। मीडिया के सामने आए तो थोड़ा गहरे कलर का सूट पहन लिया। मीडियावाले ही बताएं कि आखिर कैमरे के सामने कपड़ों के रंग का महत्व होता है कि नहीं? बेचारे सुविधा भी प्रदान करते रहें और खिंचाई भी होती रहे, कैसा जमाना आ गया है। उसके बाद अस्पताल गये, मर-मरा गये और घायल लोगों का हालचाल लेने तो सफेद रंग का सूट पहन लिया। मीडिया के लोग जैसे सिनेमा देखते ही नहीं हैं। देखते नहीं वहां दरवाजे पर लाश पड़ी रहती है और परिजन एकदम झक सफेद कपड़े पहनकर विलाप करते हैं। कितने धैर्यशाली लोग होते हैं। घर में मौत पक्की हुई तो तुरन्त दहाड़ें मारना नहीं शुरू करते गंवारों की तरह। पहले जाते हैं वार्डरोब में से फ्यूनरल ड्रेस निकालते हैं तब रोना-धोना शुरू करते हैं। चाहे स्त्री हो या पुरुष सभी इस तरह का संयत व्यवहार करते हैं। इन फिल्मों को देखकर मुझे लगता है कि जरूर धनवान लोग दो-तीन जोड़ी फ्यूनरल ड्रेस बनवाकर रखते होंगे। तो अपने शिवराज जी भी सफेद सूट-बूट पहनकर गए शोक-संवेदना जताने।
आतंकवादियों ने अपने तयशुदा कार्यक्रम के तहत दिल्ली में बम विस्फोट कर दिया। उन्हें तो ऐसा करना ही था। अल्लाह के बन्दे हैं जो चाहें सो करें। कौन है उनको रोकने वाला। हमारी सरकार भी कम होशियार थोड़े है। उनकी इस घिनौनी हरकत से भी वह कुछ नया सीख लेती है। बकौल गृह सचिव हर बार के विस्फोट से अपना गृह मन्त्रालय कुछ नया सीखता है।कितनी सहूलियत हो अगर आतंकवादी रोज विस्फोट करें, अपना गृह मन्त्रालय रोज कुछ न कुछ नया सीखेगा। मुफ्त की क्लास, मुफ्त का ज्ञान। कुल मिलाकर मुफ्त की पाठशाला। दरअसल इस्लामिक आतंकवाद के कीड़े पैर पसार चुके हैं और हमारी व्यवस्था से तो अब पायरिया की सी बदबू आने लगी है।
मैंने शुरू में ही देश के राजमंडली की जय कर दी है। झूठे थोड़े ही की है। वहां लालूजी हैं, रामविलास भाई हैं। दोनों सिमी समर्थक हैं। रामविलास भाई लादेन के भी जबर्दस्त फैन हैं। याद कीजिए २००४ बिहार विधानसभा का चुनाव। उस समय रामविलास भाई लादेन के एक हमशक्ल को लेकर चुनाव प्रचार कर रहे थे, तब भी मैंने लिखा था कि ऐसा करके वह एक समुदाय विशेष को कटघरे में खड़े कर रहे हैं। सौभाग्य से लादेन या रामविलास को मुसलमानों का समर्थन नहीं प्राप्त हुआ। लेकिन ऐसे धुरंधरों के रहते हुए आतंकवादियों को निश्चित राहत महसूस होती होगी। सोचते होंगे कि हमारा भी कोई तगड़ा आदमी वहां है। वैसे भी इस मुल्क में उनके तमाम हित-बन्धु पैदा हो गए हैं। कोई डॉक्टर है तो कोई इन्जीनियर, कोई मुल्ला तो कोई मौलवी, कोई कुछ तो कोई कुछ। उनको पूरी तरह मुतमईन रहना चाहिए। दिग्गज धर्मनिर्पेक्षों के रहते उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। आतंकवादी अबुल बशर की गिरफ्तारी होगी तो एक से एक आला नेता पहुंचेंगे। जरूरी राहत और इमदाद देंगे। ऐसे में हे प्यारे आतंकवादियों! एकदम निश्चिन्त रहो, मन लगाकर अपना काम करो। लेकिन शिवराज भाई जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृप अवसि नरक अधिकारी।

                     

                            –वेद रत्न शुक्ल

वैचारिक मित्र मिथिलेश के सवालों के जवाब

मैं अपने वैचारिक मित्र मिथिलेश के सवालों के जवाब देनें की कोशिश कर रहा हूं-

 

प्रारम्भ राजकमल चौधरी की कुछ पंक्तियों से करता हूं (हर एक शब्द ठीक से याद नहीं मतलब कुछ इसी तरह है)

जितनी जल्दी हो हमें भाग जाना चाहिये

गांजाखोर साधुओं और रंडियों के बीच….

उनका ये भागना याथार्थ से भागना नहीं है बल्कि खुद को इस पतनशील समाज में रह कर इसका हिस्सा बनने से बचने की कवायद है…आपने कहा कि पहले मुझे खुद ग्रास रूट पर काम करना चाहिए फिर किसी को प्रेरित करना चाहिये…मेरे दोस्त आप ठीक हैं मगर मैं तो बस माहौल तैयार कर रहा हूँ….और अगर कल को मेरे पांव डगमगा भी गये तो कम से कम कुछ लोगों में अलख जगाने के सुख के साथ अपनी बीवी की गोद में सो तो सकता हूं…निश्चित तौर पर किताबों से क्रांति संभव नहीं है….मगर गालिब चाचा ने कहीं लिखा था –

मुझे मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन

दिल को खुश रखने को गालिब ये ख्याल अच्छा है

यकीन मानि मेरे मित्र हर रोज इस व्यवस्था के एक पुर्जे से मैं टकराता हूंउसका खामियाजा भुगतता हूं और फिर अगले दिन किसी और पुर्जे की खोज में लग जाता हूंमेरे इस तेवर ने मेरे सामाजिक अस्तित्व पर ही सवाल उठा दिया है..खैर...

मेरे लेख का मतलब बस इतना था कि भगवान कमजोरों की भाषा है, इसलिए जितनी जल्दी हो सके भाग्यवादी रूख छोड़कर अनलहक के भौतिकवादी रूप को स्वीकार कर लें…और जहां तक सवाल राजनीतिज्ञों का है ..मैं क्षमाप्रार्थी हूं… क्योंकि इस खास विशेषण के खिलाफ मेरे विचार लेख में स्पष्ट है…..मैंने स्पष्ट कहा था कि समय आ गया है कि हम लोकतंत्र की समीक्षा करें क्योंकि मुझे पूर्ण विश्वास है कि ये समीक्षा लोकतंत्र के ह्रास का सूचक होगा…लोकतंत्र….पता नहीं क्यों इस शब्द के आते ही मेरा धूमिलाना तेवर जोर मार उठता है

अपने यहां संसद –
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
और आधा पानी है
और यदि यह सच नहीं है
तो यहाँ एक ईमानदार आदमी को
अपनी ईमानदारी का मलाल क्यों है?
जिसने सत्य कह दिया है
उसका बुरा हाल क्यों है?

यही नहीं एक कवि ने कहीं ये भी कहा है कि

यहां घोड़े और घास को एक समान छूट है

घास को बढ़ने के लिये और घोड़े को चरने के लिए

इन उद्धरणों का अर्थ ये कतई नहीं कि मैं अपने ज्ञान को बघाड़ रहा हूं…दरअसल अब मेरे शब्द भी खाली हो गये हैं,जिसमें रंग भरने के लिये इनकी आवश्यकता होती है..बहरहाल मेरा विरोध उन तमाम प्रत्यक्ष और परोक्ष….यथार्थ और कल्पना से है- जो शोषण करता है या उसमें सहायक होता है…मेरे मित्र अगर आप समझते हैं कि उड़ीसा या बिहार का बाढ़ भौगोलिक या वातावरण में किसी परिवर्तन के कारण है तो मैं आपसे इत्तेफाक नहीं रखता और फिर से स्पष्ट करना चाहूंगा कि इसका राजनीतिक कारण है…

मैनें अपने लेख में खुले तौर पर कहा था… या तो आप इस समाज को बदल डालिए या फिर भाग जाइये..अर्थात किसी भी स्थिति में इस व्यवस्था का अंग मत बनिए…आज अगर आप हमारे चुनाव के वोट प्रतिशत और हमारे देश की जनसंख्या के अनुपात पर एक नजर डालें तो आप समझ जाएंगे कि बहुत से लोग इस व्यवस्था से अलग हो रहें हैं….मैं अपनी बातों को शैलेन्द्र चौहन की इन पंक्तियों के द्वारा समाप्त करना चाहूंगा-

 त्रासदी है मात्र इतनी /सोचता और समझता हूं मैं /अभिव्यक्त करता भाव निज / सुखदुख और यथास्थिति के /पहचानता हूं, हो रहा भेद /आदमी का आदमी के साथ /प्रतिवाद करना चाहता हूं /अन्याय और अत्याचार का किंतु व्यवस्था /देखना चाहती /मुझे मूक और निश्चेष्ट नहीं हो सका पत्थर मैं /बावजूद, चौतरफा दबावों के /तथाकथित इस विकासयुग में   

गुजारिश है एक बार फिर से मेरे लेख को पढें आपको जवाब मिल जाएगा…आशा है आप मेरे तर्कों के बीच अपना जवाब ढूंढ़ लेगें…..

 आपका-

    कुणाल कुमार

आपके आलेख का इंतजार!

 

क्या वाकई में ईश्वर हैं?

इस विषय पर अपने आलेख वर्ड अटैचमेंट के साथ हमें

adarsh_272@rediffmail.com पर भेजें।

आप अपने आलेख कमेंट में भी पोस्ट कर सकते हैं।

हम वहां से उठाकर मुख्य पृष्ठ पर डाल देंगे।

जल्दी करें- तमाम इंकलाबी बंधुओं को आपके विचारों का बेसब्री से इंतजार है।

इंकलाब जिंदाबाद!

जय हिंद, जय भारत!

 

आपका-

आदर्श कुमार इंकलाब

क्या वाकई ईश्वर हैं?

 

सभी भारतवासियों को आदर्श कुमार इंकलाब का नमस्कार!

हमारे इंकलाबी बंधु बनारस के रघुवीरजी की गुजारिश है कि- क्या ईश्वर नामक संस्था का वाकई कोई अस्तित्व है?- इस मसले पर सार्थक बहस होनी चाहिए। ये एक जटिल प्रश्न है, जिससे हम सभी मानसिक तौर पर यदा-कदा जूझते रहते हैं। जिंदगी में कई बार ऐसा लगता है कि भगवान है ही नहीं- अगर होते तो ऐसा क्यों होता- वैसा क्यों होता? कुछ लोग ये भी कहते हैं कि जो अच्छे व्यक्ति होते हैं- उन्हें जिंदगी में ज्यादा दुख-तकलीफ का सामना करना पड़ता है- वो जिंदगी में बहुत पीछे छूट जाते हैं- और जो तमाम कुविचारों के चंगुल में होते हैं- उनकी दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की होती है- वे ज्यादा खुश रहते हैं। खैर, हम चाहते हैं कि इस प्रश्न पर आप सभी अपने व्यक्तिगत, ठोस और यथार्थ पर आधारित विचार रखें। अपने निजी अनुभव हमसे बांट सकते हैं। इस सवाल पर बहस करते हुए हमें अपनी बात रखनी है काल्पनिक और पुरातन ग्रंथों के संदर्भों का जिक्र करने की बजाय वैज्ञानिक और आधुनिक परिप्रेक्ष्य में भी सवाल को टटोलने की कोशिश होनी चाहिए।

उम्मीद है कि आप सभी इस विषय पर उत्साह से भाग लेंगे और अपने विचार को इंकलाब के मंच पर सभी के साथ साझा करेंगे। 

 आपका-

आदर्श कुमार इंकलाब

 

 

समस्याएं प्रतिरोध से खत्म होती है!

 

 

( हमारे इंकलाबी भाई कुणाल के आलेख- कैसा लोकतंत्र और कहां का लोकतंत्र?- के संदर्भ में मेरे विचार)

 

कुणाल जी, आपकी बातें तो सही हैंलेकिन मुझे ये नहीं समझ में आया कि आपका आक्रोश राजनीजिज्ञों के प्रति ज्यादा हैया फिर भगवान के प्रतियदि भगवान को आप वाकई नपुंसक संस्था मानते हैंजो कुछ कर ही नहीं सकती तो फिर उस पर बारबार सवाल उठाना गलत हैऔर यदि आप उड़ीसा और बंगलौर का उदाहरण दे रहे हैंतो आपको फ्रांस, अमेरिका, और इस्लामिक देशों का भी उदाहरण देना चाहिए…. आपको उस वर्ग विशेष का भी उल्लेख करना चाहिए जो भगवान नामक संस्था से तो नफरत करता हैलेकिन विवाह के समय अग्नि को साक्षी मानकर सात फेरे लेता है…. बिना मौलवी या पादरी के शादी नहीं करता हैव्यक्तित्व का ये दोहरापन पहले खत्म करना पड़ेगाजो राजनीतिज्ञों की पहचान हैआंदोलन शुरू करिए लेकिन पहले तो आंदोलनकारी को खुद वस्तुनिष्ठ होना पड़ेगाये जानना पड़ेगा कि आप का आंदोलन वाकई है किसके खिलाफविचारधारा किताबों से नहीं बनतीएक सोच होती हैएक व्यक्तित्व होता हैलीक पर चलने से वही हासिल होगा जो अब तक होता आया हैसमस्याएं पलायन या किसी के अस्तित्व को नकारने से खत्म नहीं होतींसमस्याएं प्रतिरोध से खत्म होती हैंआप पूरे सिस्टम से विद्रोह नहीं कर सकतेआप तानाशाही रवैया भी नहीं अपना सकतेकिसी को नकार कर जीतना आसान हैउसे स्वीकार करिए कुणाल जीऔर फिर उसका समाधान करिएबहस जारी रहे तो बेहतर है

 

                                 

                                         –मिथिलेश सिंह

तुम्हारे खात्मे के लिए प्रतिबद्ध हैं हम!

आज सुबह टीवी पर दिल्ली धमाकों से जुड़ी साउथ दिल्ली के डीसीपी एचजीएस धालीवाल की प्रेस कॉन्फ्रेंस सुनी…सुनकर सबसे पहले मुंह से यही निकला कि क्या हम तैयार हैं…इन आतंकियों से मुकाबले को…ये सवाल मन में इस लिए उठा कि डीसीपी साहब ने कहा कि गिरोह का मुखिया आतिफ गिरोह के हर सदस्य की दाढ़ी-मूंछ कितनी होनी चाहिए…इस बात तक पर कड़ी नजर रखता था…इस पीसी में कई और अहम खुलासे भी हुए लेकिन…एक बात मन को बहुत कचोट रही है…वो ये कि अब केवल पढ़े लिखे ही नहीं बल्कि प्रफेशनल लोग भी आतंकी गतिविधियों में संलिप्त पाए जा रहे हैं…एक आतंकी एमबीए कर रहा है…तो दूसरा एमए इकोनॉमिक्स का छात्र है…तीसरा बीए का छात्र…चौंकाने वाली बात इनकी उम्र है…इनमें सबसे ज्यादा उम्र जुनैद की 27 साल है…हमारी देश की 55 फीसदी आबादी 30 साल से नीचे की है…जरा सोचिए ये आंकड़ा सोचनीय है…सोचनीय बात ये भी है कि कैसे और किस कदर तक लोग बरगलाए जा रहे हैं…क्यों एक इंसान दूसरे की जान लेने पर आमादा है…क्या इंसान की जान इतनी सस्ती हो गई है…इन सबके जवाब आपके और हमारे पास ही हैं…क्योंकि ये लोग हमारे बीच ही रहते हैं…और बीच में ही रहते हुए वारदातों को अंजाम देते हैं…खैर आतंकवाद इस देश ही नहीं दुनिया में इस वक्त चरम पर है…जिसका खात्मा बेहद जरूरी है…आखिर में उस शहीद को श्रृद्धांजलि जो आतंकियों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ…ईश्वर से कामना है कि इंस्पेक्टर मोहन चंद्र शर्मा के परिवारवालों को इस संकट की घड़ी में साहस दें…और आतंकियों को मेरी चुनौती की कर लो जितनी मर्जी आए…हम न झुके हैं..और न ही झुकेंगे…क्योंकि हम तुम्हारे खात्मे को प्रतिबद्ध हैं।

 

जय हिंद

जय भारत ! 

रतीश त्रिवेदी

कैसा लोकतंत्र, कहां का लोकतंत्र ?

अभी दिल्ली में आंतकीं बम धमाकों की गूँज थमी भी नहीं थी कि बंगलुरू में बजरंग दल के कार्यकर्ताओं नें कर दिया सात चर्चों पर हमला…..इससे पहले उड़ीसा में विश्व हिंदू परिषद के एक नेता की नक्सलियों द्वारा हत्या का खामियाजा भी वहाँ के ईसाइयों को भुगतना पड़ा था जिस में काफी जान माल की क्षति हुई थी ….और अब बंगलुरू में कानून और नैतिकता को अगूंठा दिखाते हुए बजरंग दल की ये कार्रवाई देश को अस्थि्र करने का प्रयास है …इस तरह के संगठनों पर प्रतिबंध लगाने की बात पहले से ही वामदल करते आए हैं देखना ये होगा कि वोट की राजनीति करने वाले दल कब तक इनसे मुंह चुराकर भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि को धूमिल करते रहेगें ।अगर हम बात करें दिल्ली के बम धमाको की तो दिल्ली में हुआ ये धमाका न तो पहला है और न ही अन्तिम । न ही इस पर राजनीतिक पार्टियों सहित प्रधानमंत्री,राष्ट्रपति,पुलिस या किसी अन्य जिम्मेदार व्यक्ति या संस्था के बयान में ही कुछ नया है ।बस हर बार एक ही बात को नए-नए शब्दों मे सजा कर ये कहते हैं और हम सुनते हैं ।आतंकवाद आज समस्या है और इसे खत्म करने के लिए एक साथ ही कई जगहों पर काम करने की ज़रूरत है।सनद रहे कि अपने देश में और भी कई तरह की समस्याएँ हैं जो इससे ज्यादा खतरनाक है …

 

आज अगर इतने वर्षों तक कश्मीर में रह कर हम वहाँ के बाशिदें का विश्वास नहीं जीत पाए तो ये हमारी सबसे बड़ी असफलता है जिसे हमें स्वीकार करना चाहिये ।कश्मीर समस्या का सामाधान न तो सिर्फ राजनीतिक  तौर पर किया जा सकता है और न ही सिर्फ भौगलिक गणित के सिंद्धात पर ।मगर इसमें कोई शक नहीं कि इस समस्या का जड़ राजनीति से नाभिबद्ध है । अभी तक देश में जितने भी आतंकी हमले हुए हैं उसके हताहतों में राजनीति करने वाले कितने थे रईसजदा कितनें थे और आम नागरिक कितने थे । ये अनुपात हमें भगवान नामक संस्था से नफरत करनें के लिए प्रेरित कर सकता है ।बहरहाल हमारे देश की राजनीति से ही एक आवाज उठी थी जिंदा कौमें पाँच साल इन्तज़ार नहीं करती तो क्या सरकार बदल कर इस समस्या से छूटकार पाया जा सकता है । अगर आपको याद हो तो पीछली सरकार के दौरान विमान अपहरण और संसद पर हमला हो चुका है, जिसके जबाव में तत्कालीन सरकार ने लाखों रूपये खर्च कर सेना को सीमा पर खड़ा कर दिया था ।सनद रहे उस दौरान कहा गया था कि ये हमला लोकतंत्र पर है इसीलिए—– अब आर या पार होगा।—कैसा लोकतंत्र कहां का लोकतंत्र ।जो सरकार या व्यक्ति सोचता है कि लोकतंत्र का मतलब पथ्थरों के दिवार से बने एक महलनुमा संसद भवन हैं तो मैं इससे इत्तेफाक नहीं रखता ।लोकतंत्र को अबला नारी की तरह नचाने वाले अगर ऐसा कह रहे थे तो इसके पीछे उनकी अपनी सुरक्षा का भय था ।अगर भारत में कहीं लोकतंत्र है (जिसे मैं नहीं मानता) तो वे उस ठेले वाले और चाय बेचने वालें में ज्याद बसता है जिसकी मौत इस तरह के बम धमाकों मे होती है ।धूमिल ने कहीं लिखा था-              

                देश के करीब वही है

                जो भूखा या गरीब है

 

देश में आंतकवाद की समस्या पर हमारे राजनीतिज्ञ सीमा पार की बात कर अपने दायित्व का निर्वाह कर लेते हैं ।मगर ये महान आत्मा ये नहीं कहते की अबतक नक्सलवाद ने जितनी जाने ली है उसका जड़ कहाँ और कैसे है ।वो नॉर्थ-ईस्ट की समस्या को या फिर रोज हो रहे किसानों की आत्महत्याओं को क्या कहेगें । अभी बिहार में आये बाढ़ में गई जान के बारे में क्या कहेगें।बिहार की समस्या एक भयानक त्रासदी में बदल चुकी है जिसके लिए देश का हर नागरीक जिम्मेदार है । और मुझे आश्चचर्य इस बात को लेकर है कि इतने गाली और पीटाई खाने के बाद भी अब तक वहाँ से क्षेत्रवाद की आवाज क्यों नहीं उठी ।गोकि अधिकतर पूर्वाचलियों के बहन के साथ देश के बहुत बड़े हिस्से के लोग अपना निकटरम और गोपनीय संबंध घोषित करते रहें है ।बहरहाल समस्या एक नहीं है मगर इसका समधान एक है और वो है लोकतंत्र की समीक्षा। यहाँ मुझे रघुवीर सहाय की एक कविता याद आ रही है (एक-एक शब्द तो याद नहीं मगर मतलब कुछ इसी तरह है)

  

              21वीं सदी के इंजिनियरों ईजाद करो

              ऐसा घोड़ा गाड़ी जिसमें घोड़ा और घुड़सवार

              साथ-साथ बैठे हों

              तुम पूछोगे इससे क्या

              तो जब घोड़े को किछ पूछना पड़े तो

              उसे मुंह उठा कर पीछे न देखना पड़े

 

अब सूरतेहाल ये है कि ये सरकार, ये व्यवस्था गोली और बम की आवाज भी नहीं सुनती । तो भला ये बम धमाकों से क्या होगा।हे मेरे देश के यूवागण उठो और जितनी जल्दी हो इस व्यवस्था खुद को अलग कर लो क्योंकि जब इतिहास लिखा जाएगा तो  कम से कम हमारा नाम तो उस पन्ने में नहीं आयेगा। इस से पहले की तुम्हें भी ये व्यवस्था अपवे अनुकूल बना ले संभल जाओ ।इससे पहले की तुम भी अपनी बीवी के घूटनों सर रख कर कहो कि मैं ये कर सकता था ।इससे पहले की तुम भ इस दुनिया की सबसे बड़ी नपुंसक संस्था भगवान में विश्वास हो जाये ।सब कुछ को बदल डालो और नहीं तो फिर भाग चलो इस दुनिया से ,इस समाज से । 

              

                                                              – कुणाल कुमार

सवाल 30 लाख जिंदगियों का

 

बिहार के करीब 30 लाख लोग कोसी के कहर के शिकार है। इस महाप्रलय की घड़ी में उनकी मदद कीजिए। मदद किस तरह की जाए- इसके लिए सोचिए और जुट जाइए। लेकिन ध्यान रखिए कि आपके द्वारा दी जानेवाली मदद जरूरतमंदों तक पहुंच सके- कहीं ऐसा न हो कि बिचौलिए उसे अपनी जेब के हवाले कर लें। इस संकट की घड़ी में हर भारतवासी का फर्ज बनता है कि वो जिस हद तक हो सकता है- अपनी तरफ से उन लोगों की सहायता करें, जिन पर ये आफत आन पड़ी है। ये वक्त किसी बहस, विश्लेषण और राजनेताओं पर टीका-टिप्पणी करने का नहीं है। इस समय बस हमें उनलोगों की मदद करने की जरूरत है। मदद के लिए देश के लोगों को प्रेरित करने की आवश्यकता है।

 

आपका-

आदर्श कुमार इंकलाब

 

 

निकल पड़े हैं पांव अभागे

कुछ छोटे सपनो के बदले,

बड़ी नींद का सौदा करने,

निकल पडे हैं पांव अभागे, जाने कौन डगर ठहरेंगे !

वही प्यास के अनगढ़ मोती,

वही धूप की सुर्ख कहानी,

वही आंख में घुटकर मरती,

आंसू की खुद्दार जवानी,

हर मोहरे की मूक विवशता, चौसर के खाने क्या जाने

हार जीत तय करती है वे, आज कौन से घर ठहरेंगे .

निकल पडे हैं पांव अभागे, जाने कौन डगर ठहरेंगे !

कुछ पलकों में बंद चांदनी,

कुछ होठों में कैद तराने,

मंजिल के गुमनाम भरोसे,

सपनो के लाचार बहाने,

जिनकी जिद के आगे सूरज, मोरपंख से छाया मांगे,

उन के भी दुर्दम्य इरादे, वीणा के स्वर पर ठहरेंगे .

निकल पडे हैं पांव अभागे, जाने कौन डगर ठहरेंगे…

                                        – डॉ. कुमार विश्वास 

                                   

सच की खोज

कवि अतीत को पढ़ते हैं

प्रेमपत्र की तरह धीरे धीरे और कई बार

युवा पढ़ते हैं

काम संबंधों की बातें किताबों में

पुजारी धर्मग्रंथों को पढ़कर चुनींदा उद्धरण निकालते हैं

फाइलों के ब्योरे दफ्तर के बाबू पढ़ते हैं

बनिये बही को

इतिहासकार शिलालेखों को

सच की खोज में लगे हैं दुनिया के सारे अध्येता

कामना करो वे सफल हों ।

                                  

                  – संगम पांडेय

एहसास

लबों पे लगे हैं पहरे

हैं कुछ दर्द छिपे इन आंखों में,

सिलवटे पड़ गईं माथे पर

यूं दफ्न हैं आहें सांसों में ।

 

बिखरी जुल्फें और सिले होंठ

है अंदर इक भयानक तूफान,

अश्क भी छोड़ चले साथ अब

डूब गए सारे अरमान ।

 

हम तो हैं उन सूखे पत्तों की तरह

जो ढूंढते अपने वजूद हवाओं में,

मंजिलें तो मिलती लहरों को भी

क्यूं घुटन है घुली फिजा़ओं में ।

 

अंधेरी स्याह रात के फलक पे

जैसे इक रोशन चिराग हैं हम,

मकां पे जाते हर इक रास्ते का

सुंदर-सलोना एहसास हैं हम ।

 

और अंत में…

लम्हों के सिरहाने बैठा जब

चूमना चाहा सिंदूरी शाम

घटाओं की काली चादर ने

छीन लिए वो ख्वाब तमाम ।।

                                      

                 – असीम कुमार मिश्रा

 

 

रूस के कवि कुल्यीन कुल्यीयेव की एक कविता

मैं भी जिन दिनों मेरी कच्ची उम्र थी

बेफिक्र गीत गुनगुनाता था बेपरवाह

अंतहीन खुशियों से भरी है ये जिंदगी

नहीं वजह खेद करे और भरें आह

 

यूं ही ताकता था नीले आसमां का नूर

झरनों का पानी पिया मैंने कई बार

पपड़ाई रोटी मेरे स्वाद से थी दूर

ताजा रोटी के लिए नहीं था आभार

 

अब तो मेरे भीतर भी आ गई है समझ बूझ

छूट चुके रास्तों पर लौटता हूं बार-बार

अरे कैसी हो सुबह लेता हूं रोज पूछ

ओ झरने के निर्मल जल तुम्हें मेरा नमस्कार

 

आकाश, हरे खेत और पैड़ी शुभकामना

सुप्रभात ओ खरीदी हुई हमारी पावरोटी

जानता हूं कभी कभी है ये संभावना

कि हो सकती हो तुम दुर्लभ और बहुत सूखी भी

 

मैंने समझबूझ पाई जीकर ये लंबा जीवन

गरिमा से फिर कहता हूं शुभकामना

मेरे विवेक की जगह लेगा जिनका यौवन

उन नौजवानों को जो छुएंगे आसमां

                            – अंग्रेजी से अनुवाद:  संगम पांडेय

रसूल हमजातोव की कुछ छोटी कविताएं

1.

गांव के एक आदमी की बीवी के

आबनूसी बाल थे

दोनों थे बीस के कि बिछड़ गए

उनकी खुशियों में आए युद्ध के ये साल थे

 

एक नायक के पके हुए बालों वाली विधवा

बैठी हुई रोती है सोचती सिसकती

आज उसका बेटा हुआ है इतना बड़ा

नहीं उसका बाप था जितना कभी भी

2.

 

क्या फायदा उस हीरे या सोने का

जिसे रखा गया हो मिट्टी में गाड़

या उन चमकते सितारों के होने का

जिनके आगे आ गई हो बादलों की आड़

 

दोस्त मैं बात को कहूंगा तनिक मुख्तसर

है ये मेरे लिए बिल्कुल सीधी और स्पष्ट

नहीं जिंदगी के कोई मायने अगर

ठुकराते हो तुम किसी दूसरे के कष्ट

                                         – अंग्रेजी से अनुवाद: संगम पांडेय

 

प्रश्न ?

कल दिन भर कुत्ते की तरह 

पुलिस सड़क पर ऑय,ऑंय करती रही                                  

लोग ज़िंदाबाद मुर्दाबाद करते रहे

डॉक्टर भी बीजी बताए गए

असली ख़बर आज छन के आई

जिधर पुलिस थी उधर दर्जन भर बलात्कार

और कई दर्जन लाशें मिली

कुछ सूखी आँखों में आपका अक्स भी जलता रहा

अब आप ही कहें मुख्यमंत्री महोदय

ये मोदी का गुजरात है

या मार्क्स का बंगाल ?

                                        –कुणाल कुमार

परंपरा,प्रवाह और संस्‍कृति

उस स्‍त्री ने बच्‍ची को नहलाया
कपड़े पहनाए
और फिर
आरती पर
साथ लेकर बैठ गयी उसे।

बच्‍ची ने हाथ जोड़े
प्रसाद खाया

और जैसे-जैसे माँ करती गयी
नकल उतारती रही वह

सुबह शाम
घंटी बजाने की जिद
धूप सुलगाने की ललक
बच्‍ची में

पनपती चली गयी माँ की तरह।
दिन बीते

अब वह बड़ी हो गयी थी
माँ से सोचती थी अलग
कुछ बताती थी
और ज्‍यादा छिपाती थी।

अलग अस्तित्‍व
पहचान की जिद
उसे लगा वह
बिल्‍कुल अलग है माँ से।
माँ की परंपरा
पुरानी सी जान पड़ती थी
मूल्‍य अधूरे

रूढि़यों से घिरी दीखती थी वह
माँ को।
फिर एक दिन वह खुद
बन गयी माँ
उसकी बच्‍ची की आँखों से
झाँक रहे थे अनेक सवाल
शायद उसी के अपने

सवाल।
उसने महसूस किया कि
माँए

हमेशा पुरानी अधूरी और अपर्याप्‍त होती हैं
पर, उनमें प्रवाह थमता नहीं
न रुकती है अपनों के प्रति प्‍यार और अनुरक्ति
माँए होती हैं
परंपरा,प्रवाह और संस्‍कृति।

                      – डॉ. राम प्रकाश द्विवेदी

जो सींच गए खूं से धरती……!

 

मेरे भारत की आजादी, जिनकी बेमौल निशानी है।

जो सींच गए खूं से धरती, इक उनकी अमर कहानी है।


वो स्वतंत्रता के अग्रदूत, बन दीप सहारा देते थे।

खुद अपने घर को जला-जला, मां को उजियारा देते थे।


उनके शोणित की बूंद-बूंद, इस धरती पर बलिहारी थी।

हर तूफानी ताकत उनके, पौरुष के आगे हारी थी।


मॉ की खातिर लडते-लडते, जब उनकी सांसें सोई थी।

चूमा था फॉंसी का फंदा, तब मृत्यु बिलखकर रोई थी।


ना रोक सके अंग्रेज कभी, आंधी उस वीर जवानी की।

है कौन कलम जो लिख सकती, गाथा उनकी कुर्बानी की।


पर आज सिसकती भारत मां, नेताओं के देखे लक्षण।

जिसकी छाती से दूध पिया, वो उसका तन करते भक्षण।


जब जनता बिलख रही होती, ये चादर ताने सोते हैं।

फिर निकल रात के साए में, ये खूनी खंजर बोते हैं।


अब कौन बचाए फूलों को, गुलशन को माली लूट रहा।

रिश्वत लेते जिसको पकड़ा, वो रिश्वत देकर छूट रहा।


डाकू भी अब लड़कर चुनाव, संसद तक में आ जाते हैं।

हर मर्यादा को छिन्न भिन्न, कुछ मिनटों में कर जाते हैं।


यह राष्ट्र अटल, रवि सा उज्ज्वल, तेजोमय, सारा विश्व कहे।

पर इसको सत्ता के दलाल, तम के हाथों में बेच रहे।


ये भला देश का करते हैं, तो सिर्फ कागजी कामों में।

भूखे पेटों को अन्न नहीं ये सडा रहे गोदामो में।


अपनी काली करतूतों से, बेइज्जत देश कराया है।

मेरे इस प्यारे भारत का, दुनिया में शीश झुकाया है।


पूछो उनसे जाकर क्यों है, हर द्वार-द्वार पर दानवता।

निष्कंटक घूमें हत्यारे, है ज़ार-ज़ार क्यों मानवता।


खुद अपने ही दुष्कर्मों पर, घडियाली आंसू टपकाते।

ये अमर शहीदों को भी अब, संसद में गाली दे जाते।


खा गए देश को लूट-लूट, भर लिया ज़ेब में लोकतंत्र।

इन भ्रष्टाचारी दुष्टों का, है पाप यज्ञ और लूट मंत्र।


गांधी, सुभाष, नेहरू, पटेल, देखो छाई ये वीरानी।

अशफाक, भगत, बिस्मिल तुमको, फिर याद करें हिन्दुस्तानी।


है कहॉं वीर आजाद, और वो खुदीराम सा बलिदानी।

जब लालबहादुर याद करूं, आंखों में भर आता पानी।


जब नमन शहीदों को करता, तब रक्त हिलोरें लेता है।

भारत मां की पीड़ा का स्वर, फिर आज चुनौती देता है।


अब निर्णय बहुत लाजमी है, मत शब्दों में धिक्कारो।

सारे भ्रष्टों को चुन-चुन कर, चौराहों पर चाबुक मारो।


हो अपने हाथों परिवर्तन, तन में शोणित का ज्वार उठे।

विप्लव का फिर हो शंखनाद, अगणित योद्धा ललकार उठें।


मैं खड़ा विश्वगुरु की रज पर, पीड़ा को छंद बनाता हूं।

यह परिवर्तन का क्रांति गीत, मां का चारण बन गाता हूं।

                                                –अरुण मित्तल अद्भुत‘`

महाकाव्य

लड़की
घर से निकलती थी
करने को काम
बस में लड़ती थी
सड़कों पर भी जारी थी उसकी जंग
आफिस में बॉस की निगाहों से जूझती थी
रोज लड़की
मॉं-बाप की चौकस निगरानी
भाई की बहादुरी की कहानी
से लड़ती थी लड़की
अपनी आदिम पनाहगाह में भी
अल्ट्रासाउंड की किरणों से युद्धरत थी लड़की
अकेले

आधुनिक सभ्यता
इस घनघोर वैज्ञानिक तार्किक
और विवेकवान समय में
आफिस से घर तक
सुबह से शाम तक
गर्भ से मृत्‍यु तक
लड़की का जीवन युद्धों से भरा था
लड़की खुद में
एक महाकाव्‍य थी

                          – डॉ. रामप्रकाश द्विवेदी

Electronic Media And Code Of Conduct

 

Should electronic media, news media in particular, have a mandatory code of conduct? It is a burning question and topic for debates these days. Uma Khurana case, continue telecast of nude photographs of actress Monika Bedi, story of a car without driver and stories and programmes on ghosts and witches stick a big question mark on the content and sense of responsibilities of news channels. Freedom of expression or press and responsibilities towards society must have good balance.

 

Present Situation of News and Current Affairs Channels

 

Here we will talk only about TV news channels because private radio channels have no permission to broadcast news and current affair programmes. At present we have about 30 Indian news channels in different languages and there is a war of TRP(Television Rating Point) among them. TRP is linked with advertisement revenue directly, the only source of income for the most of news channels. Thus the war of TRP is just a war of profit, profit and only more profit. News channels have broken all the ethical, professional and social limits to win this TRP race. Here we are taking few examples of the irresponsible behavior of these channels :-

1)   Uma Khurana Case: It is the most recent example of condemnable activity of news channels. According to the find outs of investigation the reporter of ‘Live India’ or ‘Janmat’ (A News Channel) made a conspiracy to trap Uma Khurana due to personal matters. Reporters and his helpers have been put behind the bars and the channel is facing one month ban.

2)   Monika Bedi Case: “These are not pornographic channels and they must have some sense of responsibility. These channels cannot misuse press freedom like this.” Senior counsel K.T.S. Tulsi used these words to mention the Monika Bedi’s case before the bench of Supreme Court. Zee news was telecasting the nude photographs of actress Monika Bedi continuously. Those photographs were taken in the bathroom of Bhopal jail during her detention, according to the claim of news channel. At last Supreme Court gave direction to Information & Broadcasting Ministry to restrain the telecast of these photographs.

 

3)   Media Trials: ‘Media trial’ is a popular word in the street of intellectuals and our judiciary has shown its unhappiness on it several times. News channels are delivering decisions indirectly by their coverage and angle of stories. They don’t feel the sensitiveness of the incident as well as their responsibilities. In an incident of Delhi, a girl made allegations of rape and continual sexual harassment on her own uncle(Mama). News channels snatched this sensational story and started to broadcast it continuously with headings like “Haiwan Mama Ka Karnama”, “Vasana Me Andha Bana Mama” etc. After few days that mama and his wife committed suicide. According to suicide note that person was impotent so he was not able to do such a heinous crime. After investigation the girl’s allegations were found full of suspicion and a conspiracy against that person (Mama) came in to light. Here, the irresponsible behavior of news channels took to valuable and innocent lives.

 

Present Laws

 

Electronic media, both entertainment and news, get freedom of expression from article 19 1 A of our constitution like others. There is no any separate provision for the freedom of press like the constitution of USA and few other countries but the Supreme court has  given the orders to save the freedom of press several times. Article 19(1)(a) do not give the absolute or boundless freedom to express. There are few restrictions mentioned in article 19(2). For example:

(Freedom of expression can be restricted or limited to save the followings)

1) Sovereignty and integrity of India

2) The security of the State

3) Friendly relations with foreign States

4) Public order

5) Decency or morality

6) Contempt of court

7) Defamation

 

Proposed Broadcasting Services Regulation Bill:

 

“ Whereas airwaves are public property and it is felt necessary to regulate the use of such airwaves in national and public interest, particularly with a view to ensuring proper dissemination of content and in the widest possible manner;

 

Whereas the broadcast media is a powerful purveyor of ideas and values and plays a pivotal role in not only providing entertainment but also disseminating information, nurturing and cultivating diverse opinions, educating and empowering the people of India to be informed citizens so as to effectively participate in the democratic process; preserving, promoting and projecting the diversity of Indian culture and talent;

 

Whereas Government has issued guidelines from time to time for regulating the Broadcasting Services and it is felt necessary to give a statutory effect to these guidelines and provide for a comprehensive legislation.”

 

Above words were used in the draft of the proposed “Broadcasting Services Regulation Bill” which was put on the website of Information & Broadcasting Ministry for inviting comments. It shows the importance and sensitiveness of the broadcast media in the eye of government and the present situation (Worst) of this media is crystal clear to all so the Government wants to create a mechanism that could put few genuine restrictions on the broadcasted content. There are three important and think worthy features of this proposed bill:

 

1)   Establishment of ‘Broadcasting Regulatory Authority of India’.

2)   Creation of the ‘Code of Conduct’ for broadcasted content.

3)   Provision of punishment for the violators of the ‘Code of Conduct’.

 

Code of Conduct      

 

Electronic media specially news media has registered strong protest against any code of conduct made by the Government. Broadcasters Foundation, the organization of news channels has declared any such attempt as the violation of the freedom of press. They are alleging that the Government wants to control electronic news media. After many rounds of meetings both the Government and news channels have come to a solution. News channels are ready to have a code of conduct and the Government is ready to allow the news channels to make code of conduct for them by themselves. News channels have demanded one year for the making of code of conduct and got permission too. Thus the “Broadcasting Services Regulation Bill” will have to wait for at least one year for being an act and practical enforcement.

 

Earlier we have discussed the present situation of the electronic media and no body can deny the need of some type of genuine control and restrictions on it but the freedom of news media can not be ignored at all too. We have faced the result of press censorship once during the Emergency so we can’t allow the Government to have power to control news media again. We can follow the following solutions:

 

1)    Self made code of conduct : Self made code of conduct is the best way which was already adopted by the Government and news channels. Let the news channels make code of conduct for themselves and then a regulatory body should do arrangements for the strict enforcement of it.

 

2)    Neutral Broadcast Regulatory Body : The Broadcasting Regulatory body must not be full of the Government’s representatives only. Prominent citizens from different fields must be appointed on decision making positions. For example : Senior journalists, Writers, Retired Judges, Eminent Social Workers, Artists, etc. Only this type of arrangement can satisfy the common   people and we can be tension free by thinking that the electronic media which is the most strong and effective tool of mass communication is working under the surveillance of a organization full of learned, sensible, responsible and aware citizens in constructive manner and right direction.            

 

                    – Amit Kumar, Expert of media studies

चिंगारी

एक चिंगारी जल रही है

भीतर

उसकी लौ

कभी तेज होती है

कभी सोच-विचार के फेर में

पड़कर

धीमी पड़ जाती है

लेकिन

जब हवाओं का रुख बदलता है

मौसम अंगड़ाई लेती है

बादल मचल उठता है

बारिश डूबो देती है

तन-मन को शांति के सागर में

ऐसे माहौल में भी

हम टटोलते हैं दियासलाई

और सर्द पड़ चुके लाल बूंदों के ऊपर

दौड़ा देते हैं

निराशा के सभी भावों को

फिर जल उठती है छोटी- सी चिंगारी

वही चिंगारी

जिसे हम

अपने मासूम बच्चे की तरह

कलेजे से लगाए

भटकते फिरते हैं

दुलारते हैं उसे

पुचकारते हैं बार-बार

समझाते हैं कि

तुम्हारे होने से ही

काबिज है हमारा अस्तित्व

 

भले ही दुनिया बदली है

और इस तरह बदली है

कि किसी के लिए

मुमकिन नहीं रह गया है

किसी को पूरे भरोसे के साथ

अपना कहना

गले लगा लेना

फिर हाथ में हाथ लिए

कहना

कि भाई इतने दिनों तक कहां थे?

आप तो बिल्कुल भूल ही गए

अच्छा हुआ आज आप मिल गए

बहुत दिन हो गए थे बात किए हुए।

 

एक ऐसे दौर में

जब निश्चल हंसी

ढ़ूंढने से नहीं मिलती

कलि-काल के कालचक्र में

मजाक का पात्र

बना दिए जाने के खतरे के बावजूद

तुम्हें खिलखिलाते हुए देखना चाहता हूं

वादा करता हूं

चाहे जितनी लपटें उठें

तुम्हें जलाने के लिए

पर मैं तुम्हें जिलाए रखूंगा

हर हाल में

और तुम हर भंवर से बच निकलोगे

रहोगे बेखौफ

हमारे संग

भक्त प्रहलाद की तरह !

                            – आदर्श कुमार इंकलाब

संस्‍मरण बारिश का

आज मई की 21 तारीख है। सुबह ( 20 की मध्‍य रात्रि) के 1 बजे हैं। सब सो रहे हैं।
आसमान से बारिश की झड़ी लगी हुई है। फड़फड़ाती हुई ट्यूबलाइट की निरंतर बिजली कड़क रही है। नींद उचट गयी है। बारिश देखने का लालच मेरे लिए बहुत बड़ा है। मेरे अस्तित्व के एहसास का जैसे अविभाज्‍य अंग। प्राय: मैं ऐसे मौकों पर वेदना और उल्‍लास के मिश्रित भाव से भर उठता हूँ । मेरे मित्र अंधेरे और उजाले की इस गुमनाम बेला में एक कौंध की तरह मन के क्षितिज पर फूटने लगते हैं। पहाड़, नदियां, आकाश, समंदर सब के बीच बारिश एक पवित्र सा संबंध जोड़ने लगती हैं। संबंध – एक जटिल पद है। न जाने कितनी चीजें कौंधने लगती हैं मेरे मन: आकाश पर । बादल लगातार गरज रहें हैं। अत्‍यंत भयावह गर्जना। बे सहारा लोग जो सड़को पर होते हैं आम दिनों में आज अभी कहां होंगे ।यह बरसात डराती और पुलकित करती है, एक साथ।
अध्‍यापन का पेशा भी अजीब है। अनेक विद्यार्थी और उनकी अनंत स्‍मृतियॉ । चाहने वाले और विरोधी भी। ऐसे जिनमें अनंत ऊर्जा भरी रहती है और वे भी जो गुमशुदा से कहीं खोये हुए खामोश बैठे रहते हैं। अध्‍यापकों में मेरे प्रिय शिक्षक थे दीपक सिन्‍हा। बरबस उनकी याद आ गई। वे विद्यार्थी को पूरी तरह ‘बरबाद’ करके छोड़ते थे। ऐसी क्षमता बहुत कम अध्‍यापकों में होती है। मेरे मन और दिमाग को उन्‍होने बिल्‍कुल बदल दिया। जब मुझे उनकी सख्‍त जरूरत थी तब वे नहीं रहे। मेरी चाहत कुछ इसी तरह मिटती रही है।जब जो चाहा मिला तो जरुर पर ठहर न सका।
अभी मुझे नौकरी मिली ही थी कि मेरे पिता मुझे छोड़कर चले गए। और, जब ‘उसकी’ सख्‍त दरकार थी तो उसने भी ‘न’ कह दिया । ऐसी लड़खड़ाती जिंदगी मेरे नसीब का हिस्‍सा है। वैसे मैं नसीब में विश्‍वास नहीं करता । सोचा था कुछ और लिखूंगा- बारिश के रोमांटिक मूड पर पर देखिए लेखनी (कीबोर्ड) भी कहॉं से कहॅां चली जाती है , जिंदगी तरह। बादल अभी भी गरज रहे हैं, पर उनका डर जैसे खत्‍म हो गया है। सृजन की यही ताकत होती है। एक घंटा हो गया है आपको यह सब बताते हुए, सुनने की सीमा होती है । इसलिए बंद करता हूँ । बस इस कविता को सुनते जाइए-
रतनसेन पद्मावती संवाद (जायसी के प्रेम आख्‍यान ‘पदमावत’ के ऋण के साथ)
उस दिन
मेरी बगल में बैठी
तुम
पिघलने लगी थीं
लाल कपोल
उबलने लगे थे तुम्‍हारे

तुम्‍हारे होंठों से
उठती हुई
निर्धूम लपटों को
मैंने चुपके से देख लिया था।
उस दिन
पहली बार
तुम्‍हारे भीतर उतरकर
मैंने पहचाना था
तुम कितनी गहरी हो
अथाह
छू सका था
मोती और मूंगे अनमोल
जो तुमने छिपा रखे थे अपने अतल में।
तुम्‍हारे शिखरों पर
लड़खड़ाते
कदमों से पहुंच
मैं अनुभव कर पाया था
दूर-दूर तक फैले तुम्‍हारे भीतरी निजी सन्‍नाटे का
कि
शिखर अपनी ऊंचाई में होता है कितना
अकेला
निहत्‍था और अजनबी
बिल्‍कुल एकाकी
उस दिन
करीब रहकर मैंने जाना था
तुम्‍हारी रचना
कितने आदिम पाषाण खण्‍डों से हुई है
जो एक तरल गंध से सराबोर हैं
तुम्‍हारी शिराओं में बहता ज्‍वालामुखी
मुझे लगा था गलाने
धीरे-धीरे उस दिन
उसी दिन
मैंने जाना था
हम दोनों पिघल सकते हैं
गल सकते हैं
धातुओं की तरह
साथ-सा‍थ
एक-दूसरे की ऑच में।

                              – डॉ. राम प्रकाश द्विवेदी 

इंकलाब…जिंदाबाद..!

 

दोस्तों,

इंकलाब…जिंदाबाद!

मेरे पास बहुत सारे लोगों का मेल आया है कि आपके तीन ही आलेख ब्लॉग पर क्यूं है?

आप क्यों नहीं कुछ लिखते? अगर नहीं लिखते तो ब्लॉग क्यूं खोल रखा है?

आप सही कह रहे है कि मैं कुछ लिख नहीं पा रहा हूं।

वजह ये है कि मैं न कुछ कर पा रहा हूं, ना ही उस दिशा में कुछ सोच पा रहा हूं, जिनसे

आपकी अपेक्षाएं जुड़ी हुई हैं। दुनिया में प्रेम, भाईचारा और अच्छे विचारों को फैलाने का कार्य इतना आसान भी नहीं है।

हम व्यक्तिगत तौर पर समाज के बारे में दिन-रात सोचते तो हैं लेकिन उनके लिए कुछ

कर नहीं पाते। हमारे पास ताकत भी है और कमजोरी भी। मैं भी ठीक आपकी ही तरह हूं।

इसलिए चाहूंगा कि सभी लोग परस्पर संवाद कायम करें न कि सिर्फ मैं अपनी बातें रखूं और

आप लोग बस उसे पढ़कर संतुष्ट हो लें। साथ ही ये मेरा ब्लॉग नहीं, आप सबका है। इंकलाब की विचारधारा का मंच है। कुल तैंतीस मेल ऐसे आएं, जिनमें उन्होंने एक

बार मुलाकात की बात कही है। हम जरूर मिलेंगे। मैं हमेशा आपलोगों के साथ हूं लेकिन आपको बता दूं कि मैं एक साधारण-सा शख्स हूं और ये आपलोगों का बड़प्पन है कि आप मुझे इस कदर सम्मान दे रहें हैं। मैं इसे इंकलाब की विचारधारा का सम्मान समझता हूं। और मिलने से ज्यादा जरूरी है कि हम सबके दिलों में इंकलाब जिंदा रहें, हम लोग एक-दूसरे का हौसला आफजाई करते रहें।

तमाम भाइयों को एक बार फिर से धन्यवाद..!

जय हिंद, जय भारत, वंदे मातरम।

 

आपका-

आदर्श कुमार इंकलाब

 

जलेंगे आप जलेंगे हम, जलेगा हमारा चमन

कोलाहल है मचा
धरती रही उबल
इंसान की फितरत में
नहीं है सुधरने का शगल
 

पृथ्वी तप रही है। इंसान को इसकी चिंता नहीं है। हो भी क्यों। उसके घर में एसी है, कूलर है, पंखा है। हिमखण्ड पिघल रहे है। नदियां उफान पर है। पर इंसान क्या करें। उसके घर, पानी है, फ्रिज है, बर्फ है। खेतों में सूखा पड़ रहा है। पर इंसान के घर खाना है, अनाज है और है ईंधन। तो क्या इसे नियामत की भूल कहें। या किसी एक सभ्यता के कर्मों की बानगी। हवा में तपिश, बादलों में रूखापन, पानी में जलन, माहौल में उमस और पसीने का कंटक। ये बदलाव आ चुका है। दिल्ली की तपती दोपहरी में आप जल रहे है। मुंबई में सागर है, सो तापमान टिका है, लेकिन यही समुद्र लील लेगा, एक दिन एक बड़ी आबादी। धीरे धीरे वो अपना दायरा बढ़ाएगा, और इंसान का चूल्हा चौका सोफा बिस्तरा और दीवाले ढह जाएंगी। कोलकाता में आबादी का समुद्र है, सो एक अकाल वहां इंतजार में है। अकाल से मौत होना जायज है। असंख्यों की मौत। चेन्नई का मरीना बीच सुंदर है। लोग सामान्यता में जीते है। लेकिन पानी उन्हे नहीं बख्शेगा। भारत जैसे देश को गंगा जोड़ती है। गंगा में उफान पाप नहीं धुलेगा, पापी का नाश ही कर देगा। और ये सब करने के बाद गंगा वापस लौट जाएगी। शिव की जटाओं में। डरना जरूरी है। आप नहीं आपका संसार सिसकेगा। पानी और धूप के बीच का नाता टूट जाएगा। और रह जाएगी भाप। गर्म भाप। जो खेतों की माटी में छोटी छोटी दरारें पैदा कर देगी। जो फसलों की हरियाली से जलन रखेगी। जो बादलों के धुंधलके से खार खाएगी। और देगी एक नीरस मौसम। गर्म मौसम। जाड़ों की चाहत और स्वेटर पर चलते हाथ रूक जाएंगे। और बहेगी लू। करीब ही आग से लौ निकलेगी और जंगलों में वो सूखे पत्तों से दोस्ती गांठ कर एक चिरचिराहट के साथ सब कुछ लालिमा में लाकर, काला कर देगी। चिंगारी से कही भी कुछ भी खाक में बदल जाएगा। और आप के चेहरे पर पसीना बना रहेगा। 

ये ग्लोबल वार्मिंग है। वैश्विक गर्मी। जो आपके हमारे और हम सबके किए गए प्राकृतिक अत्याचारों का नतीजा है। हमने पेड़ काटे, हमने गाड़िया दौड़ाई, हमने उर्जा का दोहन किया, और उसके बदले दिया पृथ्वी को धुआं और अप्राकृतिक उष्मा। जिसका परिणाम है असंतुलन। हिमखण्डों ने पिघलना शुरू कर दिया है। वे अब सिमट रहे है। अपना अस्तित्व खो रहे है। और अपनी जलधाराओं को सोख रहे है। वे अब गर्मी से हार चुके है। और अपना सारा गुस्सा अब उतारने के करीब खड़े है। तो क्या मानव जाति को अब दिन गिनने चाहिए। क्या अब करने को कुछ बचा है। क्या हम फिर से संतुलित हो पाएंगे।
हां। पर केवल आपके त्यागने से। केवल आपके छोड़ने और लागू करने से। क्या तैयार है कल से साइकिल से आफिस जाने के लिए। चीनी, जापानी ये कर रहे है। पर आप तो उनसे बड़े है। क्या तैयार है बायोडिग्रेडेबिल साधनों पर खाना बनाने के लिए। पर आप तो बिना माइक्रोवेव ओवन के खा ही नहीं सकते है। मैं सबकी बात नहीं करता। पर कारकों की बात जरूरी है। तो क्या कल से मान लूं कि एयरकंडीशनर के बिना आप सो लेंगे आप। कैसे, गर्मी इतनी है, मैं सड़ नहीं सकता। पर यकीन जानिए। आज केवल हर घर घर में गर्मी को रोककर आप अपने नौनिहालों को हीटरी वातावरण में जीने से रोक सकते है। मेरी बात पर नहीं यकीन है, तो आज की दोपहर अपने शहर में नंगे पांव निकल कर देखिए। छाले न प़ड़ जाएं तो कहिएगा। इसे ऐसा आपने बनाया है। और अगर इसे और भयावह नहीं बनाना चाहते तो रूक जाइए। वरना ग्लोबल वार्मिंग का पहला असर आपके पानी, धूप, खाने, ईंधन और जिंदगी पर पड़ेगा। और जिसे झेलने की ताकत आपमें नहीं बची होगी। और एक बात, शहर मकानों से नहीं, हरियाली से भी बनता है। तो कम से कम घर में एक आक्सीजन देने वाला पौधा जरूर लगा लें।

  – भव्य श्रीवास्तव

मेरी कविता हो तुम

 

अश्रुपूरित ऑखों से
हमेशा क्‍या सोचती रहती हो तुम
लगता है
जैसे कोई समुद्र मंथन हो रहा हो
तुम्‍हारे भीतर
सब कुछ कहकर भी
जैसे कुछ न कह पाने की विवशता
क्‍यो झलकती है
बार-बार तुम्‍हारे भीतर
तुम भरोसा करो
मैं बिना बोले ही तुम्‍हारे
जान जाता हूं
बात की गहराई तुम्‍हारी ।
आंसू अच्‍छे होते हैं
आत्‍मा को पवित्र बनाने के लिए।
इसलिए रोना आए तो रोओ
और पवित्र होओ तुम
बिना किसी संकोच के।

                         – डॉ. राम प्रकाश द्विवेदी 

ऐ अजनबी

 

यों ही रोककर

निगाहों ने पूछा

ऐ अजनबी

तू क्यों, सगा-सा लगा?

 

पत्थरों का देश है

अनजान आसमान

सवेरा भी गुमनाम है

सूरज-चांद-सितारे सारे

लगते बेजान हैं

धमाको की गूंज

बारूद की गंध

जहां बसते हैं

फूलों की खुशबू लिए

मौत के खौफ में

जिंदगी की मुस्कुराहट लिए

चलते हो कैसे..?

 

ऐ अजनबी

मेरी तलाश है

धरती का आंचल

अपनी आंखों में

तुमने उसे उतारा कैसे..?

 

कैसे कहूं तू अनजान है

लगता है जैसे

सदियों से पहचान है

धूप की पहली किरण-सी

धुली मुस्कान थी

उन आंखों में

हौले से छूकर वह

गुजर गया

वह स्पर्श

मरती उम्मीद को

फिर जिंदा कर दिया

एक नया रंग दे गया

वह अजनबी

इस अनजान शहर को सजाकर गया।

 

– डॉ. चित्रा सिंह

 

 

 

अंधेरे आकाश के नीचे

 

अंधेरे आकाश के नीचे
तारों के साथ
लंबी बात करना
तुम्‍हे अच्‍छा लगता है अभी भी
यह जानकर सुखद आश्‍चर्य होता है।
जब दुनिया में घिसावट
का दौर चल रहा हो
तब तुम्‍हारी संवेदना बनी रहे अक्षत
इसे मैं सौभाग्‍य ही कहूंगा।
पर विश्‍वास रखो तुम
तुम्‍हारा कहा ही नहीं
अनकहा भी समझ लेता हूं मैं।
वेदना स्‍वत: एक संवाद है।
तुम शांति से निकल कर शोर में
गुम हो जाती हो
मैने शोर में ही अपनी शांति पा ली है।
एक दिन जब हम शांत हो जाएंगे
नहीं होंगे शिकवे-शिकायत
पर शोर मचेगा चारों ओर
शायद
और हम रहेंगे नि:शब्‍द
चिर मौन।

 – डॉ. राम प्रकाश द्विवेदी 

 

 

 

 

 

 

 

 

डायरी से…

माँ( … माँ …. अब बच्ची थोड़े न हूँ , ये गुरुर भी जाने कब पैदा हो गया था। )
बारिश-लोग-अकेलापन-रात…
हट पागल
भूत थोड़े न कुछ है…टन टन

घड़ी ढाई बजा कर मुंह चिढ़ा रही थी !
प्यार हुआ -इकरार हुआ के गीत के बिना बेमतलब की बरसात !
कहा जाऊँ ?
किसी को तो नहीं जानती , इस शहर में!
मन की बात बार बार आकर चहरे पर चिपक जाती थी ! जितनी अकेली थी नहीं, उससे जयादा दिख रही थी ! ओह्ह !
चाय स्स्स्स्स्स्स्स्स की तीखी सीटी सी आवाज ने झपकी में भी हिला दिया

चाय के साथ मुफ्त घूरती आँखें ..नहीं कहने पर भी, नहीं पलटीं
बेंच -बारिश -चाय -रात् -लता मंगेशकर -रोमांस सबका गणित गड़बड़ा गया………..
झमाझम बारिश में लाठी की ठक-ठक ने बता दिया कि आज रात् मैडम स्टेशन पर अकेली नहीं
कौन है रे साल्लाआआआअस्स्स्स्स्स्
रात् में भी साफ बेडौल दिखती तोंद और सरकारी आवाज़ ने राहत दी
दु:स्‍वप्‍न से छनकार आती … बचाओ बचाओ की आवाज़ मंद पड़ गई
(…..
जी वो उड़ान सीरियल की सर्फ़ वाली बहनजी ,किरण बेदी …मुझे भी आई पीसी की सारी धाराएं याद हैं , राष्‍ट्रपति ‍अवार्ड , ओह गवर्नर अवार्ड, नहीं बेस्‍ट कैडेट
आय एम द बेस्‍ट कैडैट
मैं …. मैं भी पुलिस )

सारी बात सूखे गले को तर करती हलक से होती पेट की तली में चली गयी, अपनी गति से आंसू आंखों के किनारों में आ दुबके ।
कहां जाना है मैडम …
अकेले क्‍यों चलती हो … (जमाना खराब है)
सवाल ने नारी तुम केवल श्रद्धा हो की आत्‍मा को सि‍पाहियों के जूते की नोक से निकाल कर धीरे से मेरे दुपट्टे में सरका दिया
शादीशुदा ना होने के सारे प्रमाणों का विश्‍लेषण करके दोनों ने मेरे हिसाब से अश्‍लील और उनकी अपनी आदतों के अनुरूप प्रश्‍नों की झड़ी लगा दी … व्‍वायफे्ंड साथ है … घर से भागी हो क्‍या …
अब इनका जवाब तो तब सूझे जब सवाल का मतलब पकड़ने की हिम्‍मत हो आपमें……..
ARTICLE 376IPC(RAPE) … एसपीओ साब भी क्‍लास में पढ़ाते हुए सकुचाए थे, कमरे में जाकर पढ लेना खुद से, कहकर पूरे अध्‍याय की इतिश्री कर दी थी। फिर मौका पाकर ट्रेनिंग कालेज की पॉलिटिक्‍स से अपनी नफरत .(और चाहत)…. बयां करने लगे ….
बाकी लड़कियां *कल फायरिंग में रामपुर जाना है , जाने क्‍या खाने में दे ? आज माया मैडम का जूडा देखा था ….पर अपने पूरे मन से आ गयी…….”
धकड़-धकड़ आती पैसेंजर ने सिपाहियों को अपने करम-धरम की याद दिला दी अपनी अतिरिक्‍त कृपा से मुझे बख्‍शते हुए वो पैसेंजर के नये यात्रियों पर पिल पड़े।
…सुबह के साथ धारा 376 हवा हो गयी , ऑटो के लिए आवाज देने के पहले ही चमत्‍कृत तरीके से आटो कुलांचे भरता सामने आ गया
पुलिस लाइन चलोगे
चलूंगा … कितना होगा …
सामान भी है … तो फिर सौ रूपये
(अरे रे पर रीता ने कहा था कि तीस रूपये होंगे वहां के)
मैडम चलना है तो जल्‍दी बैठो , साले पुलिस वालों की वसूली का टाईम हो रहा है ।
ऑटो वाले की इमानदारी और पुलिस वाले की बेइमानी सूटकेस समेत उठाए चल पड़ी मैं………..TO BE CONTINUED
(कल गाजियाबाद की बे मतलब की बारिश ने नौकरी की पहली रात याद दिला दी)

 –    अरुणा राय  

 

  

अधूरी लगती है…

जहां तो कहता है कि

सूर्य की लालिमा का सौंदर्य

अनुपम है, अद्भुत है

तो फिर मैं क्यूं

उसके सामने होने पर भी

सिर्फ तुम्हारे ही ख्यालों में खोया रहता हूं.?

 

कवियों की कलम से भी

यही स्वर फूटे कि

चांद का दीदार करो

तो मन मचल उठता है

अतुलनीय है

नयन-मन उन्मादिनी

चंद्रमा की चांदनी

झूठ…सफेद झूठ

सिर्फ तुम्हारी याद ही है

जो मुकम्मल है

रूह को मदहोशी के आगोश में

अमृत-कलश पिलाने के लिए.!

 

बहकते हुए बादलों से घिरी

मतवाली काली घटाओं को

गौर से कभी निहारा है ?

सच कहता हूं आदर्श

पागल हो जाओगे.!

लेकिन मैं क्या करूं

उस दिलकश फिजां में भी

दिल उसी दिलरूबा को

पुकारता है

कि आओ

और छिपा लो इस दीवाने को

अपने आंचल में

लगा दो अपने होठों से

मुहर, मेरे माथे पर

और सत्यापित कर दो

कि पूरी दुनिया में

हमारा प्रेम

सबसे सुंदर हैं।

 

कायनात के कमल को

जन्म देनेवाले

परमपिता परमेश्वर

भगवान ब्रह्मा के चरण-स्पर्श कर

मैंने प्रार्थना की

हे ईश्वर ! मुझे माफ करना, पर

तुम्हारे द्वारा रची गई

सृष्टि की हर रचना

अधूरी लगती है

यहां तक कि मैं

और मेरी कविता भी

महज मेरे महबूब के सिवा..!

            

                              – आदर्श कुमार इंकलाब

मैं फूल-तू चमन है मेरे ज़माने में

 

कितनी उल्फत है

तेरे अल्फाजो में

तू

क्‍यों पूछता है

कौन हूँ

मैं

तेरे फ़साने में

 

खता तक़दीर की कह दूं

कि ख़म ही नहीं

दीवाने में !

 

मेरी दुश्वारियों का खात्मा

गर इक नज़र से है तिरी,

तो क्‍यों रखता है

मेरी मुहब्बत बेगाने में

 

पैगाम-ए-मौत है

हर बार

तेरे आजमाने में

        – अरूणा राय   

कि अपना खुदा होना

 

 

गुलामों की
जुबान नहीं होती
सपने नहीं होते
इश्क तो दूर
जीने की
बात नही होती

मैं कैसे भूल जाऊं
अपनी गुलामी
कि अपना खुदा होना
कभी भूलता नहीं तू …       
                                                            

 -अरूणा राय  

पूंजीवाद

 

 

 

बंदरवाला

हाथ नचा-नचाकर

बजाए जा रहा था डमरू

डिग-डिग, डम-डम

उछलता-कूदता, पीछे-पीछे

बच्चों का मस्तमौला झुंड !

 

दिखी अट्टालिका सामने

डाल दी पोटली

लगा जोर-जोर से बजाने

डिम-डिम डमरू

गाने लगा साथ-साथ

नाच मेरी बुलबुल..!

 

होने लगी

चवन्नी-अठन्नी की

पतझड़-सी बारिश

हनुमान जी समझकर

खिलाने लगे लोग बंदर को

केले-रोटी

 

भांति-भांति के करतब

दिखाए जा रहा था बंदर

बढ़ने लगी भीड़ धीरे-धीरे

एक क्षण के लिए रुका बंदर

पतली छड़ी पड़ी उस पर

सटाक…..!

 

बेचारे बंदर ने दृष्टि डाली

पहले अपने मालिक पर

फिर सिक्कों पर

नम हो गईं उसकी आंखें

शायद समझ गया था वह

पूंजीवाद का अर्थ..!

 

आदर्श कुमार इंकलाब

वो बारिश की बूंदें..!

 

 

 पत्तों की गोद में बैठा वो बूंद

टकटकी लगाए आसमां की ओर

न जाने किन ख्यालों में खोया था

पत्तों के सिरहाने पे सिर टिकाए

तारों के बीच कुछ ढूंढ़ रहा था !!!

 

आंखों में नमी और दिल में शायद

कुछ टीस रहा हो

मैंने यूं ही पूछ डाला उससे

आज गुमसुमसे क्यूं हो ?

लड़खड़ाती आवाज में उसने कहा

बादलों ने हवाओं से दोस्ती कर ली है !!!

 

मैंने पूछा क्या फर्क पड़ता है ?

उसने कहा

सूखती जमीं पे मेरा बरसना

तन्हाई की इक रात में

बाहों में सजना

कोई आके भला मुझसे भी पूछे

क्यूं दरख्तों की आड़ में

रह-रहकर सिसकना !!!

 

तबस्सुम की पलकों पे उजली चादर ओढे़

जब आसमां ने ज़मीं से सवाल किया कि

सौंधी खुशबू को किसने जन्म दिया ?

जर्रे-जर्रे से आवाज आई

वो बारिश की बूंदें……!

 

 

– असीम कुमार

देर क्यूं..?

 

 

मेरे प्यारे साथियों..!

ये महज एक ब्लॉग नहीं है, वैचारिक क्रांति का सफर है। इस सफर में हम अकेले नहीं हैं, हमें कदम-कदम पर देश के तमाम युवाओं का प्रेम और सहयोग मिल रहा है। हर महीने ढ़ेर सारी चिट्ठियां, मेल्स और लगभग हर दिन देश के कोने-कोने से आनेवाले अजीजों के फोन- इसी बात का सुबूत है कि इंकलाब हमारे-आपके-सबके दिलों में जिंदा है। जिन सपनों के लिए सुभाषचंद्र बोस, वीर भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव, ठाकुर रोशन सिंह, अशफाकउल्लाह खान जैसे हमारे देश के ना जाने कितने नौजवानों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी, उन सपनों को जिंदा रखना हमारा-आपका-सबका फर्ज है।

तो कलम उठाइए और शामिल हो जाइए वैचारिक क्रांति के इस सफर में।

हमें आपकी रचनाओं का बेसब्री से इंतजार है।

आप किसी भी विषय पर अपने विचार, लेख, कविताएं, गजल, स्केच भेज सकते हैं।

रचनाएं स्वरचित होनी चाहिए। (एक पेज पर लिखित रूप से पूरे पते, फोन नंबर सहित अपना वक्तव्य भेजें कि- यह मेरी मौलिक, अप्रकाशित-अप्रसारित रचना है)

सर्वश्रेष्ठ आलेख, कविता और गजल के रचनाकार को 15 अगस्त के दिन पुरस्कृत किया जाएगा।

सर्वश्रेष्ठ स्केच और चित्र कलाकार के नाम के साथ इस ब्लॉग पर प्रकाशित किए जाएंगे।

विजेताओं का नाम ब्लॉग पर उनकी रचना के साथ प्रकाशित होगा।

जज होंगे मीडिया समीक्षक एवं लेखक डॉ रामप्रकाश द्विवेद्वी, कवयित्रि डॉ चित्रा सिंह और प्रो. अमित कुमार।

रचनाएं भेजने की अंतिम तारीख 15 जून, 2008 है।

नोट- रचनाएं वर्डपैड पर अटैचमेंट के साथ adarsh_272@rediffmail.com पर भेजें।

आपका-

आदर्श कुमार इंकलाब  

जलना किसे कहते है?

 

जलना किसे कहते है?

 

जो जलकर खाक हो चुका हो

या जो जल रहा हो

पल हर पल

 

 जो जल रहा हो

उसके पास अगर ताकत है

तो वो दूसरों को जला सकता है

 

जो जलकर खाक हो चुका हो

उसके पास ये सोचने की फुर्सत ही नहीं है

कि वो दूसरों को भी

उसी आग में झोंक सकता है

जिस आग में वो खुद जल चुका है

या फिर उसे जला दिया है

जालिम जमाने ने जबरन

 

 लेकिन जो जल रहा है

उसे भी अभी तक ये ही नहीं पता है

कि वो खुद जल रहा है

या फिर उसे भी कर दिया गया है

आग के हवाले

धकियाकर

 

जिस दिन सच से उसका सामना होगा

जिस दिन उसे इस बात की खबर होगी

कि दरअसल उसका जलना न जलना

किसी के लिए मायने नहीं रखता

 

और फिर जलना तो हर किसी की नियति है

फर्क इतना है कि उसे अपने जलने का एहसास है

और किसी को पता ही नहीं कि

जलना किसे कहते है?

 

आदर्श कुमार इंकलाब

बारिश की एक बूंद!

 

 

 

क्यूं लगता है डर

नाराज हो जाओगी तुम

मन की बात

चाहकर भी नहीं जता पाता

लबों पर लफ्ज आए

इससे पहले ही दम तोड़ जाते हैं वे

 

तुम्हारे साथ कैसा रिश्ता है

नहीं परिभाषित कर पा रहा

दोस्ती…शायद नहीं

क्यों बेचैन होता मैं

अगर तुम सिर्फ दोस्त होती

 

प्यार…नहीं

ना तुमने कभी इकरार किया ना मैंने

इंतजार रहता है

तुम्हारा नहीं तुम्हारी बातों का

 

सोचता हूं

दिन भर घुमूं तुम्हारे साथ

शाम को किसी बगीचे

या हरियाली के बीच

कुछ पल तुम्हारे साथ बैठकर

करुं कोशिश वो बात कहने की

जो लाख चाहकर भी तुम्हें नहीं कह पाया कभी

या यूं कहे कि कभी

तुम सुनोगी उतने ही गौर से

भरोसा ही नहीं हुआ

मुझे मालूम है कि

बात फिर अनकही रह जाएगी

लेकिन ख्वाबों के बगीचे में

कलियां चुनने का शौक अब भी बुलंद है

 

तुम्हारे हाथों को अपने हाथ में ले लूंगा

कुछ लम्हों के लिए

फिर जुल्फों की पेंचीदगियों को सुलझाउंगा

चेहरे पर हल्की-सी चपत लगाकर

तुम्हारी मुस्कुराहट निहारुंगा

विदा होगी जब तुम

आरजू करुंगा

रुक जाओ बस थोडी देर और

जब जिद पे अड़ जाओगी

भीतर से टूटते हुए

गले लगा लूंगा

माथे को छू पाउंगा मैं

कांपते- थरथराते होठों से

 

सब होगा

या ये सब कुछ नहीं होगा

मेरे कहने पर आओगी किसी दिन

या बहानों के अंबार होंगे तुम्हारे पास

एक तुम्हारी अपनी बनायी

सीमा-लक्ष्मण रेखा होगी

 

या फिर तुम्हारे सपनों का महल

समय से पहले ही बन चुका होगा

 

इस डगर का हर मोड़

मंजिल से अनजान है

समंदर की ख्वाहिश तो दूर

नसीब नहीं होगी

बारिश की एक बूंद!

 

आदर्श कुमार इंकलाब

आज फिर जीने की तमन्ना है..!

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कभी-कभी महसूस होता है कि मैं किसी जमाने में बादशाह-ए-हिंद रहा होऊंगा..!

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मैं तो हूं अलबेला…हजारों में अकेला..!

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हमारी टीम इंसाफ का तराजू और टॉप स्पीड के लिए खुशी के पल…टॉप स्पीड को बेस्ट ऑटो शो का इंडियन टेली अवार्ड..!

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सितंबर, 2006…सुबह होने को है लेकिन काम का जुनून जाग रहा है…फिर मुझे नींद कैसे आएगी..!

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देश और दुनिया के हालात पर चिंतन-मनन…काम के दौरान फुर्सत के दो पल..!

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चलो दिलदार चलो…चांद के पार चलो..!

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मेरी पहली पुस्तक…देहमुक्ति की अवधारणा और हिंदी फिल्में…राइटिंग मस्ट गो ऑन..!

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दिल्ली के शिक्षा मंत्री अरविंदर सिंह लवली…मुझे प्रतिभा पुरस्कार का मेडल पहनाते हुए..!

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दो दिवसीय मीडिया कार्यशाला में मेरा स्वागत…खुशी के पल..!

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मंच पर जाना और छा जाना…एंकरिंग…माई पैसन…मैं और मेरी शायरी..!

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दो दिवसीय राष्ट्रीय मीडिया कार्यशाला में ‘मीडिया: कार्यक्रम निर्माण और तकनीक’ विषय पर अपना वक्तव्य रखते हुए!

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लेखन के लिए हिंदी अकादमी का अवार्ड प्राप्त करते हुए…लेखनी की ताकत का अनूठा अहसास!

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सन् 2005 में दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड और बड़े लोगों का आशीर्वाद प्राप्त करते हुए…!

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लोग कहते हैं कि आदर्श यू आर टू स्मार्ट!

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भारतवर्ष को मेरी सख्त जरूरत है..!

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हम गणतंत्र भारत के परतंत्र नागरिक…

दस्तकें दें-दें थकेगा एक दिन यह इंकलाब,
गर जलालत इस तरह सहते रहेंगे आदमी।
 तागड़ धिना…तागड़ धिना ता…ता…ता..!26 जनवरी के दिन सोचता हूं कि जिंदगी का छब्बीसवां पैकेज बाइट पर नहीं एंबियंस पर काटूं।भले ही पत्थर-सी मांसपेशियां नहीं हैं, ना ही लोहे-से अभय भुजदंड हैं लेकिन नस-नस में आग की लहर तो है( यानी दिनकर की कंचनी कसौटी पर खरा उतरता हूं)। उस आग-अलाव के साथ-साथ सपने जगते रहते हैं, जलते रहते हैं। मैं भारतवर्ष के 54 करोड़ युवाओं में शामिल एक आम युवा हूं(आम इसलिए कि सोनिया गांधी की तरह मुझे हर महीने में पचास हजार चिट्ठियां नहीं आतीं), जिसे इस बात का पक्का और पूरा भरोसा है कि जिन्हें लोग किताबी और ख्याली बातें कहते हैं, उन्हें भी साक्षात किया जा सकता है। चाहे दुनिया अपने पके बालों का लाख हवाला देते फिरे । बकौल अंका-
राह-राह में कदम-कदम पर, दफ्तर या दुकानों में-
लोग सयाने दीवानों को कुछ से कुछ समझाते हैं। 
मैं उन लोगों की फेहरिस्त में नहीं शामिल होना चाहता, जो तमाम उम्र हालात को कोसते और दूसरों को दोष देते फिरते हैं या फिर किनारे बैठकर तमाशाई बने रहते हैं, दूसरे शब्दों में बुद्धिजीवी बन जाते हैं, व्यावहारिक होने का गर्व महसूस कर मुस्कान बिखेरते हैं। देश के करोड़ों लोगों की तरह मेरी भी कमजोरियां हैं, सीमाएं हैं, मुंह मोड़ने के लिए तमाम वजहें भी हैं। फिर भी छोटी-छोटी चीजें करना चाहता हूं, अपने वतन के लिए, बिना बताए, चुपचाप।यथा शक्ति, तथा भक्ति।
अंधेरे पर क्यूं झल्लाएं,
अच्छा हो एक दीप जलाएं।  
करीब ढ़ाई हजार साल पहले कवि संत तिरुवल्लुवर की लिखी पंक्तियां मुझे बचपन में पढ़ने को मिलीं, जिसका अर्थ बाद में काफी पूछताछ के बाद पता चला-
वेल्लथ थनैया मलारनीतम मानधर्थम उल्लथ थनैया थुयारवू।(यानी नदी या झील या ताल की गहराई, जल की स्थिति चाहे जो भी हो, लिली फूल हमेशा बाहर निकलता है)या किसी कवि की शब्दों में यूं कहें कि-
क्या पतझर के बाद वसंत का आगमन नहीं होगा? अवश्य होगा..! 
 मार्क्स के मुताबिक- जो जैसा जीवन जीता है, उसकी चेतना वैसी होती चली जाती है। बचपन भले ही स्वामी विवेकानंद, नेताजी सुभाष, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, इकबाल और मार्क्स को पढ़ते हुए गुजरा हो, लेकिन कड़वा सच यही है कि उन लोगों की तरह देश को कुछ दे जाने का माद्दा मुझमें नहीं है। साथ ही जिंदगी दुनिया की खुरदरी सच्चाईयों के साथ गुजरी हैं, इसके बावजूद इतना समझदार नहीं हो पाया कि उनकी बातों को कागद की लेखी मानकर भूल जाऊं और समझदारों की बिरादरी में शामिल हो जाऊं। या खो जाउं उन लोगों की भीड़ में, जो बातें तो बहुत बनाते हैं और उनसे होता कुछ नहीं है।  आप माने या ना माने, लेकिन असलियत यही है कि सपने शिथिल नहीं हुए हैं।  शायद इसलिए आपसे संवाद की जरूरत है।
विज्ञान का छात्र होने के कारण समझता हूं कि भौतिकी में यदि दो फ्रीक्वेंसी मैच करती है तो अनुनाद होता है।  
अपनी बातें लोगों के सामने रखे जाने पर बुद्धिविलास का इल्जाम मढ़े जाने का खतरा तो है पर-
कहना तो वही है जो मेरी लहू में है,
चाहे आप कुछ भी कहें हमारे बयान पर।
हम तो ऐसे हैं भइया। 
अपने देशवासियों की तरह मैं भी गणतंत्र दिवस का जश्न तहे दिल से मनाता हूं, लेकिन ना चाहते हुए भी विचारों का जंप कट लग ही जाता है। आजादी के परवानों के लिए आजादी का मतलब महज अंग्रेजों से मुक्ति नहीं था। उनका संकल्प था- समाज की जड़ों में पैठी उन बुराईयों को निकाल फेंकना, जिनकी वजह से हमारे वतन की हंसी-खुशी पर खतरा पैदा होता है। टीस की बात ये रही कि 15 अगस्त सन् 1947 को हमने मान लिया कि हम पूरी तरह आजाद हो गए। पर हकीकत यही है कि हम अब भी गणतंत्र भारत के परतंत्र नागरिक हैं। निचली अदालत में भगतसिंह ने क्रांति का मतलब बखूबी समझाया था।
क्रांति के लिए खूनी लड़ाईयां जरूरी नहीं है और न ही इसमें व्यक्तिगत हिंसा के लिए कोई जगह है। वह बम और पिस्तौल का संप्रदाय भी नहीं है। क्रांति के मायने हैं- अन्याय और भ्रष्टाचार पर आधारित समाज में आमूल परिवर्तन। 
बदलाव की जरूरत से किसी को इंकार नहीं हो सकता लेकिन पहल भी तो हमें ही करनी होगी।
कंचनजंघा की चमकती चोटी को देखना हो तो दार्जिलिंग जाना ही पड़ेगा।
 जिन महानुभावों को हमने देश का पथ प्रदर्शक या जनवादी भाषा में नेता बनाकर देश की जिम्मेदारी सौंप दी, उनकी चर्चा करना किसी बहरे के सामने झुनझुने बजाना यानी समय बर्बाद करना भर है। वर्षों पहले सुनील दत्त से दिल्ली में मुलाकात के समय मैंने जब उनसे देश की राजनीति में युवाओं को भरपूर मौका दिए जाने की बात कही थी और आंकड़े के साथ-साथ दो-चार इंकलाबी सवाल दागे थे तो वो बस मुस्कुराकर रह गए। इस मसले पर देश के अधिकांश कर्णधारों की भंगिमा यही होती है। वो दलील देते फिरते हैं कि युवा इस काबिल हैं ही नहीं। यहां बरबस मुझे हरिकिशोर चतुर्वेदी की पंक्तियां याद आती हैं- 
क्या आप भी उसी व्यवस्था के अंग हैं
जिनके इशारों पर जुगनुओं को ही
घोषित कर दिया गया है प्रकाश पुंजऔर
सूरज को अधेरों में गुम कर दिया गया है? 
कब्र में पैर लटकाए तख्त पर बैठ चुके बुजुर्ग और खास लोगों ने देश के लिए कुछ भी खास किया हो, मुझे तो ऐसा नहीं लगता। आम लोगों ने ज्योहीं उन्हें सिर आंखों पर बिठाया(जिस तरह फ्रेम बनाते समय कैमरा का हेडरूम काटकर हम किसी का सिर ऊंचा कर देते हैं, गलती यहीं हुई) वो खास हो गए और आम लोगों के लिए उनमें नफरत की भावना पैदा हो गई। मुझे याद है- सुभाष घई को जब भारत के सिनेप्रेमियों ने राजकपूर के बाद दूसरा शो मैन घोषित कर दिया तो सन् 2001 में यादें फिल्म के रिलीज के मौके पर घई ने बयान दिया कि मैंने ये फिल्म पटना और भोपाल के रिक्शा खींचनेवालों के लिए नहीं बनाई है…(देशी आंखों से विदेशी सपने)। ये सुभाष घई का दंभ और अहंकार बोल रहा था। नतीजा सामने है। हालांकि उस वक्त महेश भट्ट ने कहा था कि- सुभाष घई नाम का ब्रांड मर रहा है और उसे जिंदा करने के लिए उन्हें चमत्कार करना होगा। खैर..!  मेरे पैरों में घुंघरू बंधा दे तो फिर मेरी चाल देख ले। उदारीकरण के रास्ते खुलने के बाद तरक्की के अलावा और भी बहुत कुछ समझ में आ रहा है। बाजार का अपना मिजाज है। एक अच्छे और संवेदनशील अभिनेता होने के बावजूद शाहरुख खान को सिक्स पैक एब्स बनाने की जरूरत पड़ती है और दुनिया से मुखातिब होकर कहना पड़ता है कि– दिस मेक्स मी फील लाइक ए स्टार। ये समझ में भी आता है, पर जब 25 साल तक समाजवाद की सीख देते हुए राज्य की सत्ता का स्वाद चखनेवाले ज्योति बसु के दिमाग का पेंच अब अचानक दुरुस्त होता है(तकनीकी भाषा में यूं कहें कि जब उनके दिमाग का मॉनीटर कैलिब्रेटेड हो जाता है) तो फरमाते हैं कि समाजवाद अब सपना है और पूंजीवाद समय की जरूरत है। सच पूछिए तो मुझे हिंदी फिल्मों के रंग बदलते सारे खलनायक एक-एक कर याद आने लगते हैं। फिर मार्क्स के नुमाइंदे का मुलम्मा किसलिए? ये हैं माकपा के भारत रत्न। बड़-बड़ गेलन, बैजू अयलन। ऊपर से जनता की नब्ज को समझने का दंभ भरते हैं। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन ने 26 जनवरी, 1930 को जारी किए गए अपने घोषणा-पत्र में सशस्त्र क्रांति का विरोध किए जाने पर गांधीजी की ओर संकेत करते हुआ कहा था कि- कोई व्यक्ति जनसाधारण की विचारधारा को केवल मंचों से दर्शन और उपदेश देकर नहीं समझ सकता। वह तो केवल इतना ही दावा कर सकता है कि तरह-तरह के विषयों पर उसने अपनी बातें जनता के सामने रखीं। जनसमर्थन का दर्परखनेवाले बुद्धदेव भट्टाचार्य और ज्योति बसु को ज्यादा फुदकने से परहेज रखना चाहिए।  
26 जनवरी के मौके पर इस पल मुझे अपना शहर याद आ रहा है, जहां लोग मुझे आदर्श कम इंकलाब नाम से ज्यादा जानते हैं। कोई- कोई मजाक में क्रांति कुमार भी कह डालता है। जितनी मुंह, उतनी बातें।
दरअसल आदर्श से आदर्श कुमार इंकलाब होने की भी अपनी कहानी है।छठी कक्षा का छात्र था, जब मैंने पहला जुलूस निकाला था। उस समय सीतामढ़ी के जिलाधिकारी सुधीर कुमार थे। मामला छोटा था और जोश जबरदस्त। दंडस्वरूप एक शिक्षक का तबादला काफी दूर कर दिया गया था, कलाकार थे वे, इसलिए हमें आगे आना पड़ा था। इसके अलावा स्कूल में सुविधाएं बढ़ाने के लिए भी दबाव डाला जाना था।मेरे पीछे-पीछे करीब डेढ़ सौ विद्यार्थी थे, नारे की गूंज में हमारी मांगें शामिल थीं।मेरा एक दोस्त था- इंदल, बुलंद आवाज का मालिक। मेरे मना करने के बावजूद हर चार-पांच नारे के बाद-एक तरफ से आदर्श कुमार……..तो दूसरी तरफ से जोर से आवाज आती- इंकलाब..!ऐसा वो मस्ती के मूड में कर रहा था, लेकिन ये गूंज रूह का संगीत बन गई। इस तरह आदर्श कुमार के साथ इंकलाब का रिश्ता हमेशा-हमेशा के लिए जुड़ गया।  
(गरीबों का लहू
जो पसीना बनकर बहता है
ठंडी आह
जो फिजां में फैल जाती है
आकस्मिक मौत
जो अभाव में हो जाती है
सब हैं- मौन शहादत
जो विचारों की उर्जा देती है
अनुभूति का ताप बनती है
ज्वालामुखी विस्फोट बनकर
जड़ता की जमीन तोड़ती है
इंकलाब आता है।)
 ये अलग बात है कि ये रिश्ता जब मुझ पर हंसता है तो सिर खुद-ब-खुद जमीन का दीदार करने लगता है। खैर, हमारी मांगे मानी गईं। अगले दिन क्षेत्रीय अखबार की पहली हेडलाइन हमारे जुलूस की खबर बनी।    आज किडनी के व्यापार वाली खबर देखने के बाद मन खुद-ब-खुद ईश्वर के अस्तित्व पर सवाल उठाने लगा। भगत सिंह का लेख- मैं नास्तिक क्यों हूं?– की पंक्तियां भीतर घुमड़ने लगीं। फिर ट्रांजिशन प्लेट के साथ ख्यालों में गालिब आ धमके। 
महरम नहीं है तू ही नवाहाए- राज का,
या वरना जो हिजाब है, पर्दा है साज का! 
 ( मेरे हिसाब से ये शेर हकीकी शेर है- ऐ गालिब ये तेरा कुसूर है कि तू अल्लाह की हकीकत को नहीं पहचानता। वरना, उस ईश्वर के होने का सुबूत संसार की एक-एक चीज से जाहिर होता है। काश तुझमें भी इतनी समझ होती कि तू भी सच्चाई को पहचान सकता। तेरी मिसाल उस अनजान आदमी की तरह है, जो यह नहीं जानता कि सितार के तार से आवाज कैसे निकाली जाती है, पर एक जानकार उसके एक-एक तार से सैकड़ों आवाजें निकाल लेता है, जो उसमें छिपी हुई है।) फिर अपनी ताकत का एहसास होता है- 
इंतजार की हद हो चुकी।
घुट-घुट कर जीते हुए दशकों बीत गए।
बदलाव की उम्मीद थी पर मिला तो सिर्फ धोखा।
आखिर कब तक छले जाते रहेंगे?
और कितना बर्दाश्त करेंगे?
दुनिया के भंवरजाल में आखिर कब तक फंसे रहेंगे?
नित-नई चुनौतियों से कब तक आंखे चुराए रहेंगे?
वक्त आवाज दे रहा है…नई क्रांति की नई राहें बाहें फैलाए इंतजार कर रही हैं।
तो आइए जागरूक बनें और नेताओं को बता दें कि-
हम महज एक वोट नहीं तुम्हारे भाग्य-विधाता हैं।
और तुम ज्वालामुखी के मुख पर बैठकर रंगरेलियां नहीं मना सकते! 
 क्रांति चिरंजीवी हो, जय हिंद, इंकलाब…जिंदाबाद! 
गणतंत्र दिवस की ढ़ेर सारी शुभकामनाएं!  
 आपका-

आदर्श कुमार इंकलाब

     

डायरी के दो पन्ने!

 

मिर्जा असदुल्लाह खान का एक शेर है-

दोस्ती का पर्दा है बेगानगी

मुंह छिपाना हमसे छोड़ा चाहिए! 

शुक्रवार, सुबह के सात बज रहे थे। उफ्फ..! इस वक्त टेलीकॉलर का फोन!उठाया तो धाराप्रवाह गालियां- शिशुपाल को मात देनेवाली प्रस्तुति। मैंने कितनी बार समझाया उसे कि सुबह-सुबह मार्क्स को मत पढ़ा करो। कहीं वामपंथियों को गाली देने में तुम्हें मजा तो नहीं आता है, निंदा रस का ठर्रा गटकने की आदत तो नहीं पड़ गई तुम्हें। और ये फिर तुम मुझे क्यों सुना रहे हो, जाकर वामपंथियों को सुनाओ। बची-खुची गालियां उसने मेरे लिए रिजर्व रखी थी।

दिल्ली में रहने के बावजूद पिछले दस महीने से मैं उससे मिलने की योजना टालता जा रहा था।  दिल्ली विश्वविद्यालय के परिसर में हमने कई जुलूस साथ-साथ निकाले थे, पुतले फूंके थे और लंबे-चौड़े भाषण दिए थे। केंद्र सरकार हो या कहीं की राज्य सरकार- और फिर चाहे वो किसी भी पार्टी की क्यों ना हो। कुरुक्षेत्र और योजना पढ़ते, आंकड़े जुटाते, एकाध क्रांतिकारी अंतरा लिख डालते- फिर दे दनादन। 

लेकिन आगाज-ए-मुहब्बत का अंजाम वही हुआ, जो होता है। बच्चू फंस गया दर्शन में। जिस दिन उसने अपने महत्वाकांक्षी शोधकार्य के लिए अहंकेंद्रित विषमावस्था पर आधृत युक्ति में तर्कदोषविषय चुना और कमबख्त पैरी(मशहूर दार्शनिक) के चक्कर में पड़ गया, उसी दिन मैंने उसके पिताश्री को फोन घूमा दिया- अंकल, आपको चिंता करने की कोई जरूरत नहीं, आपका सुपुत्र डायनासोर की तरह विलुप्त होते महान विभूतियों की कतार में खड़ा होने में कामयाब हो गया है, दुनिया की तमाम सफलताएं उसके विचारों के सामने तुच्छ है। अंकल भी खुश हो गए कि घर पर जमीन-जायदाद की कमी है नहीं, बेटा महानता की राह पर निकल पड़ा, इससे अधिक सीना फुलाने वाली बात भला फिर क्या होगी? अपने नाम से पहले चार-पांच श्री लगाकर ही दम लेगा। 

यायावरी का दौर याद आया। सोचा कुछ पल के लिए ही सही राहुल सांकृत्यायन वाली जिंदगी जी ली जाए। पहले ही शर्त रख दी मैंने। जुलाई, 2005 के बाद मिल रहे हो, आज क्रांति- व्रांति की बात नहीं करोगे। भागते भूत की लंगोटी ही सही, बेटा मान गया।   मंडी हाउस के श्रीराम सेंटर में कॉफी पीते हुए सुकून तलाशने की कोशिश कर ही रहा था कि देश और दुनिया की बात फिर आ खड़ी हुई। कुत्ते की दुम भी कभी हंड्रेड डिग्री होती है। राम के अस्तित्व पर चल रही राजनीतिक बहस को लेकर टची हो गया। मैंने दो टूक कह दिया- तुम दोहरी मानसिकता के शिकार हो गए हो। चुटकी ली- सन् 1962 से ही कंफ्यूज होने की आदत पड़ी हुई है। तुम वामपंथी होते ही हो ऐसे। एक तरफ तो मार्क्स को पढ़ते हो और दूसरी तरफ राम को लेकर सीरियस हो जाते हो। व्हाट इज ऑल दिस यार! लेकिन सवाल खड़े करने के लिए ही वो पैदा हुआ है। मेरे पत्रकारीय दायित्व पर भी उसने गोले दाग डाले- बारी मेरी थी। भगवान श्रीकृष्ण की तरह मेरे मुस्कुरा देने से वो संतुष्ट नहीं हुआ। एप्पल प्लस इक्वल दबा दी- जूम इन हो गया मैं। मेरी रुह की प्यास है पत्रकारिता। कईयों के लिए ये- बिना कमएले पेट न भरतउ, गुजर जतउ कोना रे- भी हो सकता है, लेकिन मेरा पहला और आखिरी प्यार पत्रकारिता ही है। भारतीय राजनीति बाहरवाली की तरह टाई जरूर खींचती है, लेकिन बेवफा होने की सूरत कतई नजर नहीं आती। मीन-मेख निकालने वाले चाहे जितना सर फोड़े, चंद नकारात्मक पहलुओं के बावजूद अगर टीवी मीडिया इतना लोकप्रिय है तो इसके पीछे इसकी अपनी खूबियां ही है। अगर हम धान की बाली पर ये इल्जाम लगा दें कि इसमें चावल के साथ-साथ भूंसे भी भरे होते हैं तो ये हमारी बेवकूफी ही है। कड़ी प्रतियोगिता है, अधिक से अधिक दर्शकों तक अपनी पहुंच बनाने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, ये हमलोग ही समझ सकते हैं। दही-चूड़ा अगर नहीं बिकता है तो पिज्जा-बर्गर ही सही, अपने ग्राहकों को चलता कर देना कहां की अक्लमंदी है? हम लस्सी भी पिलाते रहते हैं ताकि ग्राहकों का डीलडौल बना रहे। कीड़े की दवा से फायदा तो होता है, लेकिन कड़वी होती है, इसलिए चीनी के साथ गटक लो। सूचना के साथ-साथ मनोरंजन का तड़का। श्रीसंत की तरह घूरने लगा मुझे। तुम श्याम बेनेगल की तरह फिल्में बनाना चाहते हो, मैं यश चोपड़ा की तरह। वीर-जारा की प्रेम कहानी के जरिये अगर शांति का पैगाम दिया जा सकता है तो इसमें हर्ज ही क्या है? तेरी अपनी सोच है, मेरी अपनी सोच। उसने वही कहा जो मेरे तथाकथित बुद्धजीवी मित्र बांचते रहते हैं- तुम बदल गए हो आदर्श!  कोई फर्क नहीं अलबत्ता। 

जबसे मीडिया के माहौल में समर्पित हुआ, उसी समय से सगे-संबंधी, यार-दोस्त सात समंदर पार हो गए। लेकिन उस रोज मैंने तय किया कि जब कभी थोड़ा-सा भी वक्त मिलेगा तो इमली का बूटा-बेरी का पेड़, जरूर गाउंगा। एक छंटाक ही सही, उर्जा की खुराक तो मिल जाती है। रास्ते में अमर्त्य सेन की एक किताब खरीदी, 695 रुपये में- द ऑर्ग्यूमेंटेटिव इंडियन अभी पहला चैप्टर वॉयस एंड हेट्रोडॉक्सी ही पढ़ पाया हूं। लेकिन बढ़िया किताब है, पढ़ी जानी चाहिए। खा-पीकर लम्बलेट हुआ तो मर्यादा पुरुषोत्तम राम मेरे मन पर भी छा चुके थे। हृदय-पटल पर राम को लेकर चल रही रस्साकशी का दस्तावेज धीरे-धीरे दर्ज होने लगा।  

काटो तो खून नहीं, फिर उबलेगा कैसे? सवाल आस्था का है, आस्थावादियों की जमात में हमआप हों ना हों हमारा भारतवर्ष तो है। मेरी जन्मभूमि सीतामढ़ी(बिहार) है, जहां जगतजननी मां जानकीजी का जन्म हुआ था। सीतामढ़ी को लोग भगवान राम की अर्धांगिनी सीता के जन्मस्थान के तौर पर ही जानते हैं। मेरी उंगली सेतुसमुद्रम परियोजना पर नहीं, राम के यथार्थ होने ना होने के बहस पर उठी है। निश्चित तौर पर सेतुसमुद्रम परियोजना के अपने लाभ हैं, लेकिन इसके बीच राम की किरकिरी कुरेदकर रख देती है। 

किसी भी एक शख्स का एक वक्तव्य उतना दुखद नहीं है, जितना कि इस बात पर बाकायदा तेल छिड़ककर दियासलाई जला डालना। राम के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह खड़े करना जितना शर्मनाक है, उससे कहीं अधिक शर्मिंदगी की बात है, उसे लेकर राजनीति की रोटियां सेंकना। रोटी की तपन में कमी आ जाए तो फिर से तवे पर चढ़ा देना। जिस तरह से राजनीतिक पार्टियां राम-राम चिल्लाकर अपना काम निकाल रही है, लगता है वो इसे चुनावी मुद्दा बनाकर ही छोड़ेगी। 

सदियों से लोग राम नाम के सहारे जिंदगी जिए जा रहे हैं, जब इंसानों का अपना दुख ही झगड़ने लगता है तो उनके मुंह से यही निकलता है, जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए। 

जब भविष्य की चिंता दर्द का सबब बन जाती है, तो- होइहें वही जो राम रचि राखा- फिर कुछ पलों के लिए बेफिक्री की चादर ओढ़ना आसान हो जाता है। 

टीवी की दुनिया में वो दृश्य हमेशा के लिए ऐतिहासिक बना रहेगा, जब धारावाहिक रामायण के प्रसारण के समय सड़कें सूनी हो जाती थी, सारी हलचलें कुछ पलों के लिए खामोश हो जाती थी, रामायण शुरु होते ही अगरबत्तियां अग्नि का स्पर्श पाकर दमक उठती थीं।  

राम हुए थे या नहीं, इसे गणितीय प्रमेय की तरह सिद्ध नहीं किया जा सकता, इसे लेकर जुबान की दौड़ लगाना या कलम घसीटना फिजूल है। 

हमारे देश के करोड़ों लोगों के विश्वास का दूसरा नाम है राम। 

मानवीय मूल्यों और दायित्व बोध के प्रतीक हैं राम। 

देश की संस्कृति के अटूट अंश हैं राम। 

जिस देश के हजारों स्कूलों में बच्चे प्रार्थना के तौर पर सुंदरकांड का पाठ पढ़ते हैं, कई इलाकों में सुबह हनुमान चालीसा के साथ अंगड़ाई लेती है, वहां के नागरिकों से अगर ये कहा जाए कि तुम जिसकी आराधना में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हो, वो कभी धरा पर अवतरित ही नहीं हुए थे, तो कहीं न कहीं टूटन तो होगी। 

जिनके आराध्य दशरथ के राम नहीं थे, उन्होंने भी अपने राम गढ़ लिए। मसलन कबीरदास, उनके राम निराकार है। उनके राम सामाजिक विद्रूपताओं पर कड़ी चोट करते हैं। लेकिन राम तो विराजमान हैं ही। कुल मिलाकर चंद लोगों के लापरवाही भरे वक्तव्य से आम जनता की भावनाओं को ठेस जरूर पहुंची। 

निंदिया रानी रास्ते में थी, उससे पहले याद आ गईं बचपन में पढ़ी रामचरित मानस की ये पंक्तियां- जासु राज प्रिय प्रजा दुखारीसो नृप अवस मरक अधिकारी। 

   लेकिन यह राम का आदर्श था, करुणानिधि जैसे नेताओं को भला इसकी परवाह क्यूं होगी? 

 

आपका-

 आदर्श कुमार इंकलाब 

न्याय

कई बार चाहा मैंने कि

भावनाओं की अभिव्यक्ति के साथ

कर सकूं न्याय

असफल रहा मैं..! 

 

कोयल की कूक

यंत्रों से नहीं निकलती

संवेदना की धारा

रोशनाई से नहीं फूटती।

 

कलम और कागज

बस सहचर बनकर

दुख-सुख बांट लेते हैं।

 

हर बार

बहुत कुछ

रह जाती है शेष

पीड़ा और बेचैनी

जख्मों को हरा रखने के लिए..!

आदर्श कुमार इंकलाब

 

 

आवाज

आधी रात को

पलकों का चमकना

जांबाज धड़कनों का

धड़-धड़-धड़-धड़ धड़कना

हृदय में स्वप्नों की कुलबुलाहट

किसी के  ना आने की आहट

चांद के बदन को टूटकर

प्यार करने की अकुलाहट-छटपटाहट

आदर्श और यथार्थ के बीच

दिन-ब-दिन बढ़ती टकराहट

बर्दाश्त नहीं कर पाता हूं

बिखेर देता हूं कागज पर

रोशनी की जगमगाहट

जुनून की तपिश व

प्रियतम की कशिश को..!

                                                                                                                                                             

घने कुहरे को चीरकर

दमकता हुआ सूरज

जो असंभव है, उसका आकर्षण

त्याग और भोग का घर्षण

कर्म और भाग्य का प्रदर्शन

समंदर की लहरों की भांति

गर्जन करता मेरा आत्मविश्वास

हर क्षण विजेता बनूंगा मैं

गूंजेंगी फिजा में

बस… मेरी ही आवाज..!

आदर्श कुमार इंकलाब
 

आजादी की साठवीं सालगिरह मुबारक हो!

 

क्या यही सब सोच कर वो देश पर कुरबां हुए

क्या इसी दिन के लिए चढते रहे वो सूलियां

क्या यही जन्नत है जिसको देखने के वास्ते

फूंक डाले थे उन्होंने खुद ही अपने आशियां..!

जिंदगी के 25 पतझड़-सावन-बसंत-बहार बीत चुके हैं, या यूं कहें कि मैंने अपनी उम्र की रजत जयंती मना ली है। ये पच्चीसवां पंद्रह अगस्त है, जो मेरी जिंदगी में आया है। इस पंद्रह अगस्त का कभी मुझे बेसब्री से इंतजार रहता था।

बात सन् 1987 की है, पांच साल का मासूम था। पहली अगस्त से ही मेरे स्कूल में पंद्रह अगस्त की तैयारियां शुरु हो जाती थीं। तब मैं भी देशभक्ति गीतों के रियाज और क्रांतिकारी नारे लगाने में मशगूल हो जाता, एकिक नियम जाए तेल बेचने। मैं अपने स्कूल में सबसे ज्यादा जोर से इंकलाब-जिंदाबाद के नारे लगाता था। वक्त बीतते गए, इसकी गूंज रूह में समाती चली गई।

 

पारिवारिक माहौल राजनीतिक था, धीरे-धीरे देश की दिशा-दशा समझने लगा था। उन दिनों राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, उनके बारे में एक चुटकुला उन दिनों बेहद लोकप्रिय हुआ था। राजीव गांधी किसी सब्जी की दुकान पर गए, दुकान पर हरी और लाल दोनों तरह की मिर्च के ढे़र थे। राजीव गांधी ने दोनों तरह की मिर्च की कीमत पूछी, जब उन्हें मालूम हुआ कि लाल मिर्च ज्यादा महंगी है तो उन्होंने कहा कि लोग फिर लाल मिर्च ही क्यों नहीं उगाते, ताकि उन्हें ज्यादा कीमत हासिल हो। मामला परवरिश का था। 

 

हमारे देश की परवरिश भी इन 60 सालों में जिसके जिम्मे थी, वो कितना भला कर पाए, इसका जवाब अगर ढूंढना हो तो गांवों में घूम आइए, बिना सवाल पूछे आपको खुद-ब-खुद जवाब मिल जाएगा। साथ ही आप लौटेंगे एक और सवाल के साथ कि हमें क्या मिला

 

जवाहर लाल नेहरु, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, विश्वनाथ प्रताप सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे करिश्माई छवि वाले प्रधानमंत्रियों ने इस देश के लिए अपने माथे पर कितने बल लिए, इसे कंचनी कसौटी पर कसने के लिए किताबों और पत्र-पत्रिकाओं के संदर्भों की बजाय हकीकत की जमीन तलाशने की ज्यादा जरूरत है। 

 

1929 में लाहौर में रावी नदी के तट पर हुए कांग्रेस अधिवेशन में जब गांधी जी ने पंडित जवाहर लाल नेहरु को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया था, उसी समय से गांधी जी नेहरु की नेतृत्व क्षमता में विश्वास करने लगे थे। हालांकि नेहरु जी 1919 से ही चर्चा में आ गए थे, जब वो अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव पद पर नियुक्त हुए थे। कालांतर में प्रेस की आजादी के पक्षधर नेहरु ने डिस्कवरी ऑफ इंडिया और ग्लिम्पसेज ऑफ द वर्ल्ड हिस्ट्री जैसी किताबें लिखकर अपनी कलम का भी लोहा मनवा लिया। इसमें कोई शक नहीं कि उन्होंने राजनीतिक आदर्शवाद की नींव रखी, हमारे स्वाभिमान को आवाज दी, लेकिन उतना ही कड़वा सच ये भी है कि वो जमीनी विकास की बजाए विचारों की भूल-भूलैया में भटकते रहे। बाद में चलकर उनकी सुपुत्री इंदिरा गांधी ने ही उनके स्थापित किए हुए राजनीतिक मूल्यों की तिलांजलि दे दी। वैज्ञानिकता और व्यवहारिकता की कसौटी पर नेहरु के उन सिद्धांतों को इंदिरा जी ने परखा और अपनी सूझ-बूझ का इस्तेमाल करते हुए कुछ हद तक स्थितियों को बदलने की कोशिश की। गरीबी कितनी दूर हुई, ये अलग बात है लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि गांवो के लोगों के लिए वो एक महान और मजबूत नेता थीं। लोकप्रियता की राजनीति की शुरुआत का श्रेय उन्हें ही जाता है। 20 सूत्रीय कार्यक्रम से हालात कुछ बदले। इसके साथ ही उन्होंने राष्ट्रहित में कई बड़े और कड़े फैसले लिए। लाल बहादुर शास्त्री के बाद वो आम जनता के बीच सबसे पसंदीदा प्रधानमंत्री बनीं। शहर के लोग भले ही उन्हें तानाशाही और निरंकुशता के लिए कोसे। उनके दामन पर भी कई छींटें पड़ी, इसके बावजूद बी के बरुआ ने जब कहा- इंदिरा इज इंडिया तो एतराज जताने वालों की जमात उठ खड़ी हुई। वाजिब भी था। 

 

 

राजीव गांधी की आलोचना के लिए बहुत वाकये पेश किए जा सकते हैं, लेकिन तकनीकी रुप से उन्होंने भारत को बेहद समृद्ध किया। विज्ञान और तकनीक में उनकी दिलचस्पी ने हमारे राष्ट्र को तरक्की के लिए एक ठोस बुनियाद दी।

 

विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब 1987 में राजीव गांधी और उनके परिवार वालों पर बोफोर्स मामले में आरोप लगाना शुरु किया, तब वो अचानक चर्चा में आए और जब अगस्त, 1990 में प्रधानमंत्री के पद पर रहते हुए उन्होंने मंडल आयोग की सिफारिशों पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी, तब वो पिछड़े वर्गों के लिए मसीहा बनकर उभरे। उनके इस योगदान के लिए पिछड़ी और अनुसूचित जातियां-जनजातियां हमेशा याद रखेगी। उन दिनों उनकी लोकप्रियता मुर्गा छाप पटाखे की तरह बम बम थी। वी पी सिंह ने मंडल के जरिये अपने आभामंडल का खूब विस्तार किया। फिर ठीक तीन महीने बाद आडवाणी जी ने भी हाथों में कमंडल लिया और चल पड़े राम रथ लेकर, लालू यादव ने जब बिहार में उनके रथ का चक्का पंक्चर किया तो आडवाणी ने वी पी सिंह से समर्थन खींच लिया, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। मंडल का जादू चल निकला, उसका फायदा वी पी सिंह को भले ही ना हुआ हो लेकिन क्षेत्रीय नेताओं ने मंडल के नाम पर खूब मलाई काटी। वी पी सिंह मंडल के अलावा कुछ खास नहीं कर पाए, लेकिन एक संवेदनशील कवि और कलाप्रेमी प्रधानमंत्री के रुप में उनके लिए लोगों के मन में सम्मान तो है ही।  

 

अटल बिहारी वाजपेयी मुझे हमेशा एक दिग्भ्रमित नेता लगे…गीत नया गाता हूं…गीत नहीं गाता हूं….उन पर टीका-टिप्पणी करना मैं वक्त की बर्बादी समझता हूं। सिर्फ एक बात के लिए थोड़ी दाद देना चाहूंगा कि 1977 में जब वो जनता पार्टी की सरकार में विदेश मंत्री के पद पर सुशोभित थे, उसी दरम्यान संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में उन्होंने अपनी मातृभाषा हिंदी में भाषण दिया था। हिंदी के माथे पर चंद लम्हों के लिए बिंदी की चमक बिखेर दी।

  

मनमोहन सिंह को मैं करिश्माई छवि का प्रधानमंत्री नहीं मानता, उन्हें नॉन प्राइम मिनिस्टर कहने वालों की भी कमी नहीं है। मुझे उनकी काबिलियत और उनकी योजनाओं पर कतई संदेह नहीं हैं लेकिन उनके कार्यों का विश्लेषण अभी करना जल्दबाजी होगी। भारत में आर्थिक सुधारों की नींव डालनेवाले के तौर पर उन्हें याद किया जा सकता है। कांग्रेस ने आजाद भारत में सबसे अधिक करीब साढ़े चार दशकों तक राज किया। आजादी के छह दशक बीत चुके हैं, जो लोग उनके हर कदम पर हमदम थे, उन्हें भी अब ये बात समझ आ गई है कि कांग्रेस पार्टी ने उनके बाल उल्टे छुरे से मुंड़ लिए हैं।

 

 

 हर घर से एक रुपया और एक ईंट मांगकर अयोध्या में राम मंदिर बनाने का दावा करने वाली भाजपा ने झल्लाकर मई, 2003 में कह दिया- काशी और मथुरा उसके एजेंडे में नहीं है। सन् 1992 में धर्म के नाम पर लोगों के दिलों में आग लगाने की कोशिश हुई, इंसान को संप्रदाय के आधार पर मरोड़ने का खेल खुलकर खेला गया। मकसद सिर्फ एक था-वोट की राजनीति। एनरॉन बिजली परियोजना पर चीख-पुकार मचानेवाली भाजपा जब 13 दिनों के लिए सत्ता में आई तो उसने ही उसे मंजूरी दी। 2004 में तमाम अराजकताओं के बावजूद भाजपा को इंडिया शाइन करता हुआ नजर आया। चौदहवीं लोकसभा चुनाव में जनता जनार्दन ने भी जवाब दे दिया- अपनी करनी, पार उतरनी…सिंहासन खाली करो कि जनता आती है..

 

मार्क्स को जिन लोगों ने पढा है, उन्हें बताने की कोई जरुरत नहीं कि बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसे वामपंथियों का उनसे क्या नाता है? सबसे ज्यादा पढे-लिखे नेताओं का दंभ भरनेवाली वामपंथी पार्टियां किस तरह राजनीतिक शक्तियों का दुरुपयोग करती है, ये अब हंसुआ-हथौ़ड़े चलानेवाले भी समझने लगे हैं।  

 

आधा तीतर, आधा बटेर यानी खिचड़ीफरोश की राजनीति ने भारतीय शासन व्यवस्था का कबाड़ा कर दिया है। हर पार्टी में अपनी डफली, अपना राग का चलन है। नेता अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं के लिए पार्टी की बखिया उघेड़ने में एक पल का भी देर नहीं लगाते। कुछ पुराने नेताओं ने आम नागरिकों के साथ संवाद की परंपरा कायम करने की कोशिश की थी, वो दीया लेकर ढूंढ़ने से भी नहीं मिलती। भारतवर्ष की जनता का विश्वास बार-बार तार-तार होता है।

 

 

भारत के किसान लंगोटी पर ही फाग खेलने के लिए बेबस हैं। आंसू, पसीने और खून से रचे-बसे व्यक्ति की संवेदना भी तकनीक में तब्दील हो गई है।  भारतीय निर्वाचन आयोग की तमाम कोशिशों के बावजूद ऐसे लोगों की तादाद अपनी जगह कायम है, जो कोउ नृप होय, हमें का हानि-चेर छाड़ि न होए रानी- में ही विश्वास रखती है। 

 

राजनीति की चर्चा इसलिए कर रहा हूं कि आज जब एक तरफ देश आजादी की साठवीं सालगिरह मना रहा है, वहीं एक बेहद काबिल और स्वप्नद्रष्टा राष्ट्रपति देश की दयनीय राजनीति की भेंट चढ गया और कहीं कराह तक नहीं उठी। चंद आवाजें फुसफुसिया चुटपुटिये की तरह कहीं धुआं छो़ड़ के रह गईं। दूषित मानसिकता वाले लोग कानून की बजाय मीडिया से कहीं ज्यादा डरते हैं। 

 

बड़े दिनों बाद जब पापा से कुछ बहस हुई तो उन्होंने सवाल दागा कि तुमने अपनी निजी जिंदगी में इतने दिनों में क्या किया?जवाब देना पड़ा- मैंने धीमे आवाज में अपनी पांच खास उपलब्धियां गिना दीं- दिल्ली विश्वविद्यालय से गोल्ड मेडल, हिंदी अकादमी का लेखन के लिए अवार्ड, शीला दीक्षित द्वारा दिया गया बेस्ट स्टूडेंट का अवार्ड, देहमुक्ति की अवधारणा और हिंदी फिल्में- विषय पर शोधकार्य और बारहवीं कक्षा में विज्ञान विषय के साथ जिला में प्रथम और बिहार में तृतीय स्थान। 

 

मेरा पेशा मेरे लिए बहुत कुछ है, उनके लिए बस मेरे जीवनयापन का जरिया। इसे वो उपलब्धि नहीं मानते। हां, मीडिया द्वारा समय-समय पर उठाए गए कुछ कदमों की तारीफ वो दिल खोलकर करते हैं, खैर..उनका जवाब था कि तुम्हारी इन उपलब्धियों से मुझे तो गर्व हो सकता है, समाज शायद उस हद तक गौरवान्वित ना महसूस करे। देश के लिए दलीलें देना आसान है, कुछ करना बेहद मुश्किल..देश के लिए तुमने क्या किया या फिर कभी कुछ कर पाओगे, इसका भरोसा तुम्हे है?

 

 

सवाल स्वाभाविक ही था लेकिन सच पूछिए तो मैं हिल गया। उन्होंने पूरी जिंदगी समाज के लोगों के बारे में सोचने-विचारने और समय-समय पर उनकी यथासंभव मदद करने में गुजार दी। खुद के लिए कभी सोचा ही नहीं। क्या मैं कभी देश के लिए या फिर अपने समाज के लिए ही सही, एक तिनके का भी योगदान कर पाउंगा? जवाब जो भी हो लेकिन इस सवाल ने मुझे चीरकर रख दिया है।  

मैं अरसे बाद जुबान से ना सही लेखनी के जरिये ही आप सभी लोगों के साथ एक बार आवाज लगाना चाहता हूं- इंकलाब… जिंदाबाद…। कलाम ने राष्ट्रपति का पद छो़ड़ेते-छोड़ते युवाओं को संदेश दिया था- उनकी सोच होनी चाहिए- वी कैन डू इट। 

 

मुझे इस पल गजानन माघव मुक्तिबोधकी ये पंक्तियां याद आ रही है— 

तस्वीरें बनाने की इच्छा अभी बाकी हैं

जिंदगी भूरी ही नहीं, वह खाकी है

जमाने ने नगर के कंधे पर हाथ रख

कह दिया साफ-साफ

पैरों के नखों से, या डंडे की नोंक से

धरती की धूल में भी

रेखा खींचकर

तस्वीर बनती है

बशर्ते कि जिंदगी को

चित्र-सी बनाने का

चाव हो

श्रद्धा हो, भाव हो..!      

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  जय हिंद..!                                                                

सभी साथियों को आजादी की साठवीं सालगिरह की बधाई…! 

 

 आपका-

आदर्श कुमार इंकलाब 

 

अनजाने रिश्ते..!

मेरी जिंदगी में शामिल हैं

कुछ नये, कुछ पुराने

और कुछ अनजान-से रिश्ते!

 

सोचता हूं

क्यूं ना उन अनजाने रिश्तों को

कोई नाम दे दूं

किसी मधुर गीत की तरह गुनगुनाऊं

और खिलखिलाकर निभाऊ उन्हें

किन्तु अतीत ऐसा करने नहीं देता

क्योंकि हरेक रिश्ते ने दिया है मुझे

सिर्फ दुख-दर्द और रिसते हुए जख्म!

 

खुशी में दौर कर शुमार होते हैं वे

मेरे गम में आंखें नम करते हैं वे

उनका इंतजार रहता है मुझे भी

पता नहीं किस रिश्ते से

किस अधिकार से..!

 

शायद उनसे है मेरा

कोई अनजाना-सा रिश्ता

जोड़ तो लिया है मैंने

लेकिन मुझे मालूम है

निभाना आसान नहीं

कोई बेनाम-सा रिश्ता!